समाज की संकीर्ण सोच पर बली,
तड़फती बिलखती पर कुछ न कहती,
क्या कसूर उस अभागन का !
समाज कहती जिसे विधवा नारी ।
जीवन संघर्ष करती वह जीती,
और समाज के ताने सहती,
जिने का उसे अधिकार चाहिए,
उसकी अपनी मर्जी का संसार चाहिए ।
बहोत कचरा फैला है मन मे,
आवो आज बदल दें सोच,
उस अबला नारी को दें,
नई सोच की नई दिशा ।
विधवा शब्द मिटा दें धरती से,
उसको भी दें प्यार दुलार,
बहोत सह लिया सामाजिक प्रहार,
वो देख रही खड़ी उड़ने को तैयार ।।
रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़
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