Saturday 23 December 2017

बरवै छंद-फिर फागुन आया है

है तन मन बौराया,भीगा अंग।

फिर फागुन आया है,लेकर रंग।

कलरव करते हैं खग,मगन अपार।

बहती है रह रह कर,मस्त बयार।

ना गरमी ना जाड़ा,सम है ताप।

मौसम इतना अच्छा,मिटा संताप।

कोयल कूके कुहु कुहु,देखो आम।

बौराई  है  फिर  से,हर इक शाम।

मधुबन लागे आँगन,हर घर द्वार।

गाँव  गली  चौराहा , महक अपार।

खिल उठे हैं टेसू,पृथ्वी भाल।

पुष्प का बन गया हो,जैसे ताल।

उद्विग्न पुष्पधन्वा,रति बेहाल।

है मृगमद यह कैसा,हृदय रसाल।

भ्रामर करते उपवन,भन भन गान।

लगी फूल खिलने सुन,सुमधुर तान।

प्रकृति हुई मन भावन,खुशी अनंत।

वन-उपवन हर आँगन, है हेमंत।

हेमंत मानिकपुरी(साहित्यकार)

भाटापारा छत्तीसगढ़

Tuesday 19 December 2017

ग़ज़ल

2122/2122/212

रमल मुसद्दस महजूफ

सब वो अर्फ़ा बस हमी इक आम हैं

चोर   वो  हैं   और   हम  बदनाम हैं

अब  पहनते  कीमती  स्वेटर  सभी

बस  हमारे  पास  ही  इक  लाम  हैं

इक गिरिह सुलझी तो फिर इक बँध गई

क्या   हरिक   आफ़त   हमारे   नाम  हैं

हार कर उसने जहाँ को पा लिया

जीत  कर  हम  शह्र में गुमनाम  हैं

इश्क में हमने उतर के देखा तो

यूँ लगा जैसे  ये  शोला  चाम  हैं

यूँ ही तन्हा कब तलक रहते रहें

वास्ते हमारे भी  कोई  जाम हैं..?

जो उफ़नती जा रही है इक नदी

फिर समन्दर से उसे क्या काम है..?

अर्फ़ा -उच्चतम  ,लाम -ऊनी टोपी ,गिरिह-गाँठ,

चाम-खाई

ग़ज़ल

हेमंत कुमार मानिक पुरी

भाटापारा छत्तीसगढ़

Monday 18 December 2017

मैं गाँधी बन जाहूँ-सार छंद

आँखी चशमा गोल लगाके,कमर घड़ी लटकाहूँ।
एक हाथ मा लउड़ी धर हूँ ,मैं गाँधी बन जाहूँ।।

सत के सँग सँग जीहूँ मैं हर,सत बर प्राण गवाहूँ।
सादा  बढ़िहा  जिनगी रहिही,राम  नाव  मैं  गाहूँ।।

घर घर जाके मैं सबझन ला,चेत लगा समझाहूँ।
दारू  छोंड़व गाँजा  छोंड़व, कहिके  माथ नवाहूँ।।

जम्मो हाथ कलम सँग होही,स्कूल गाँव बनवाहूँ।
नोनी बाबू  सँग  सँग पढ़ही,आखर अलख जगाहूँ ।।

बाहिर-भाँठा बाहिर झन जव,सब जन ला चेताहूँ।
बनवावव  घर  मा  शौचालय,सगरी  पाठ  पढ़ाहूँ।।

जीव मार झन झगरा लड़ झन,अइसन बात बताहूँ।
मनखे  मनखे  एक  बनाके , दया  मया  बगराहूँ।।

हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई,सब ला गला लगाहूँ।
जाति धरम के भेद मिटा के,रसदा सही बनाहूँ।।

हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा छत्तीसगढ़

Monday 27 November 2017

छप्पय

धड़ धड़ ले दव दाग,सबो ला मारव गोली।
छाती मा चढ़ जाव,खून के खेलव होली।
आतंकी ला गाड़,देश बिक्कट सुख पाही।
छोंड़व झन जी आज,फेर मउका नइ आही।
मानवता के नाश ला,रोकव अब पारी हवय।
आवव आघू वीर तुम,दुश्मन देख सिहर जवय।

Sunday 26 November 2017

बरवै

           बरवै

जाबो काम करे बर,सब परिवार।
मेहनत ले सिरजाबो,खेती खार।

परता टोर टोर के,रचबो पार।
दलहन पाबो कसके,खाबो दार।

जोंत जोंत भुइयाँ ला,करबो सार।
धान पान होही जी,तब भरमार।

खद्दर नइ होही जी,ककरो द्वार।
अब पक्का घर बनही,झारा झार।

अब चम चम चमकाबो,सबके ठाँव
गली बनाबो पक्की,जम्मों गाँव।

रखबो साफ सफाई, पूरा साल।
स्वास्थ सबो के होही,माला माल।

जल साफ सबो पीबो,क्लोरिन डार।
बीमारी ला करबो,भव ले पार।

सरग बनाबो सुघ्घर,नइ हे देर।
हरियर करबो धरती,जाँगर पेर।

दुख पीरा ला हरबो,ये संसार
जाँगर के पाछू मा,ले हन भार।

----हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा छत्तीसगढ़

Tuesday 21 November 2017

अमृत ध्वनि

जानव जी कब आ जही,धरके 'काल'बरात।

माटी के चोला हमर ,आय घुरनहा जात।।

आय घुरनहा जात सुनव जी,सबो गुनव जी।

मन मारव जी,सच साजव जी,सुख पावव जी।

करम करव जी,मरम हरव जी,राम जपव जी।

सत लावव जी,बन मानव जी,सब जानव जी।

                                   ........हेमंत

Sunday 19 November 2017

अमृत ध्वनि

छोंड़व बोतल के नशा,राखव तन मन साफ।
गलती अड़बड़ झन करव,नइ होवय जी माफ।।
नइ होवय जी ,माफ समझलव,थोरिक सोंचव।
मन मा भरलव,बने परखलव,काया सुध लव।
जग समझावव,मिल जुर रह लव,झगरा टोरव।
मान बचावव,जिनगी गढ़लव,बोतल छोंड़व।  

                            ........हेमंत कुमार

Saturday 18 November 2017

अमृत ध्वनि

मन से झगड़ा छोड़ दें,रहें सभी सब साथ।

जात-पात सब भूलकर,चलें मिलाकर हाथ।।

चलें मिलाकर,हाथ सभी जन,कर परिवर्तन।

हो अपनापन,ना हो परिजन,ना परिवेदन।

देश भक्ति धन,महके हर तन,जैसे चंदन।

कर अभिनंदन,भारत वंदन,तन्मय कर मन।

                         .......हेमंत कुमार मानिकपुरी

अमृत ध्वनि


पानी  बड़  अनमोल  हे , पानी   हमर परान।

सोंच समझ खरचा करव,पानी अमरित जान।।

पानी अमरित ,जान बचाही,तन जुड़वाही।

प्यास  बुझाही ,पेड़  उगाही,जग  सँवराही।

नीर गँवाही,खइता  जाही, समझव  ग्यानी।

वो दिन  आही,सब  चिल्लाही,पानी  पानी।

                                   ....हेमंत

Monday 6 November 2017

त्रिभंगी


माटी के सेवा,देहय मेवा,धरती के तुम जतन करव।

बड़ पेरव जाँगर,धर लव नाँगर,खेती बर जी ध्यान

धरव।।

जिनगी हर बनही, छाती तनही,मिहनत के बस पाँव

परव।

भुइँया दाई कस,करलव जी जस,दुख माटी के तुमन

हरव।।

---------हेमंत

Sunday 29 October 2017

दोहा

कानन झुरमुट खोजता,हवा हुई  भयभीत।

काँप गई है फिर धरा,लहर चली अब शीत।।

रात ठंड  से  मर  रही, सुबह काँपती  रोज।

सूरज ओढ़े कोहरा ,करे धूप  की खोज।।

सर्दी में करता मजा, कहाँ  उसे अनुताप।

धुआँ धुआँ तालाब है,निकल रहा है भाप।।

आता  सूरज  रोज ही, उठकर  पहले ताल।

गरम गरम जल में उतर,होता फिर वह लाल।।

बद से  बदतर  हो रहे, मौसम  के  हालात।

शीत ओढ़कर घाँस भी, रोज  बिताती रात।।

दोहा

हेमंत कुमार मानिकपुरी

भाटापारा

Wednesday 20 September 2017

दोहा (छंद के छ 4 के अभ्यास))


बिन  पानी  होगे  सबो , परता  खेती  खार।
दुख मा आज किसान हे,करजा हवय अपार।।

परगे हाट-बजार हा,सुन्ना एसों साल।
जम्मो डहर दुकाल के,छँइहा हे विकराल।।

माथा धरे  सियान हे , लइका मन बिनहाल।
कोन जनम के पाप हा,लाने हवय दुकाल।।

कुरिया होय कपाट बिन,दाई बिन औलाद।
छदर-बदर तो हो जवय,रहय भले फौलाद।।

सुघ्घर ग्यान सकेल के,दव अवगुन ला बार।
जइसे  भूँसा  धान ले , सूपा  देत   निमार।।

हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा

Monday 18 September 2017

सार छंद

सत्य राह पर चला करे जो,केवल पीड़ा सहता।
झूठों के पौ-बारह होते,सत्य भूख से मरता।।

दबा पड़ा है सत्य कहीं पर,नजर नही अब आता।
चोर उचक्के बनते राजा ,यही सत्य है भ्राता।।

दाढ़ी मूछें  लंबी  लंबी , है  माथे  पर  चंदन।
भीतर से रंगीन मिजाजी,बाहर है सादापन।।

वोटों की जब बारी आती,नेता घर घर जाते।
बैठ पालथी मजबूरी में,दलितों के घर खाते।।

जनता मारी मारी फिरती,दफ्तर से दफ्तर तक।
घुसखोरों की आमद बढ़ती,जनता है नत मष्तक।।

भोले भाले लोगों को तुम,जितना तड़फाओगे।
याद रखो ये बात सदा तुम,चैन नही पाओगे।।

इक दिन तो मर ही जाना है,रख बस इतनी हसरत।
हो हर दिल से प्यारा रिश्ता,ना कोई हो नफरत।।

धीरे धीरे आगे पीछे,बारी आती सबकी।
जैसे को तैसा मिलता है,देख रहा परलोकी।।

सत्य राह मे कष्ट सदा है,सत्य वचन है भैया।
आखिर मंजिल पहुँचा देती,सदा सत्य की नैया।।

हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा

Tuesday 12 September 2017

लइकापन(सार छंद)

                    "लइकापन"
                        (सार छंद)
हो जाबो बड़का जब भइया,मोह मया फँस जाबो।
गिल्ली डंडा फुगड़ी रस्सी ,खेल कहाँ तब पाबो।।

मनमानी कर लेथन संगी,जब तक हे लइकापन।
अमली,आमा,बीही चोरा,बारी मा चल खाथन।।

परसा पाना के पुतरा बर,पुतरी खोजे जाथन।
बने बराती गड़वा बाजा,डब्बा बाँध बजाथन।।

डबरा मा मछरी चल धरबो,छींच छींच अउँटाबो।
खदबद खदबद लद्दी करबो,बामी डेमचुल पाबो।।

रच-रच चढ़थन चल गेंड़ी जी,भँवरा खूब चलाथन।
रेस टीप बर ओन्टा कोन्टा, कोला डहर लुकाथन।।

चड्डी पहिरे टायर धरके ,गली गली दउँड़ाथन।
गली खोर मा हफट गिरत ले,चक्का खूब चलाथन।।

मन भर उतलँग कर लेथन जी,चढ़थन परवा छानी।
फोदा  धरले  खेले  जाबो, चल तरिया  के  पानी।।

पेड़ झाड़ मा खोर्रा खोजत,दिन भर खार बिताथन।
मिठ्ठू  हेरे  के  चक्कर  मा,गारी  गल्ला  खाथन।।

हेमंंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा छत्तीसगढ़

Monday 4 September 2017

दोहा

                मोर गाँव

अमली आमा लीम अउ, बर पीपर  के  छाँव।
लागय भारत छोटकुन,मोर जनम के गाँव।।

पक्की रसदा हे बने,सफा सफा सब छोर।
शौचालय बन गे हवय,घर घर ओरी-ओर।।

तरिया मा पचरी बँधे,लगे पेड़ हे पार।
कमल खिले चारो मुड़ा,सादा लाली झार।

धान पान होथे बने,सबके खेती-खार।
छान्ही भर बगरे हवय,तुमा-कोंहड़ा नार।।

सीधा बड़ मनखे इहाँ,हवय गवँइहा ठेठ।
ना फेशन के सँउख हे,ना हे धरना सेठ।।

ना कोनो छोटे हवय,ना बड़का हे जात।
मया प्रेम सद्भाव ले,रहिथे सबो जमात।।

घर कुरिया छोटे भले,हिरदे जघा अपार।
मिल जुर के रहना इही,मोर गाँव के सार।।

दोहा

हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा छत्तीसगढ़

Sunday 3 September 2017

ग़ज़ल

फा़इलुन ,फा़इलुन,फ़ाइलुन,फाइलुन

हर गली शाम तक आज दुबकी दिखी

धूप  भी  छाँव  के  संग  बैठी  दिखी

ये अमा अब उजालों में खोती दिखी

झोफड़ी में कोई रौशनी सी दिखी

जाने क्या  कह  दिया है  किसी  ने  उसे

उनकी आँखो में जो आज तल्ख़ी दिखी

जिन्दगी फिर से थमने लगी थी यहाँ

चींटी फिर एक दीवार चढ़ती दिखी

मुद्दतों  बाद ये शह्र बेखौफ़ है

राह चलती हुई आज लड़की दिखी

अमा-अँधेरा

ग़ज़ल

हेमंत कुमार मानिकपुरी

भाटापारा

छत्तीसगढ़

Saturday 2 September 2017

दोहा


हिन्दी से ज्यादा अभी,है अंग्रेजी दौर।

अंग्रेजी जो बोलता,उसके सर पर मौर।।

अंग्रेजी माध्यम बना,है बहुतेरे स्कूल।

ए,बी,सी,डी पढ़ रहे,हिन्दी भाषा भूल।।

याद नही है अब हमें,हिन्दी वाले अंक।

ये कैसा दुर्भाग्य है,लगा सोच पर जंक।।

हर घर में बनता दिखे, पास्ता नूडल आज।

स्वाद भूल देशी रहे,फास्ट फूड का राज।।

बाप बाप अब ना रहा,डैड नया है नाम।

मॉम बनी  माता  ,सभी, देखो  मेरे  राम।।

हाय बाय अब चल रहा,नमस्कार ना होत।

ब्रो,सिस् कहने लगे , सब  अंग्रेजी  होत।।

सर से लेकर पाँव तक,गाँव शहर के लोग।

संस्कृति पश्चिम का करे,बिन सोचे उपभोग।।

चले गए गोरे सभी,हिन्द हुआ स्वतंत्र।

फिर उनकी संस्कृति हमें,बना गई परतंत्र।।

दोहा

हेमंत कुमार मानिकपुरी

भाटापारा छत्तीसगढ़

Tuesday 29 August 2017

दोहा

भादो महिना में हुआ,बारिश का संयोग।

पानी गिरते देखकर,खुश  हैं सारे लोग।।

छाई है फिर से  घटा,कई  दिनों  के बाद।

बादल गरजा है बहुत, आया सावन याद।।

सरर-सरर चलती रही,हवा आज दिन-रात।

पानी  बरसा  जोर  से, आई  रे  बरसात।।

सूखे खेतों का मिटा,मुश्किल से जी प्यास।

जगी किसानों में नई,उम्मीदों की आस।।

चहल पहल है खार में,तेज हुए सब काज।

हल खेतों में चल पड़े,अर्र-तता आवाज।।

कोई रोपाई  करे ,कोई  ब्यासे  खेत।

खाद डाल कोई रहा,कोई कोड़ा देत।।

बाँध कछोरा हैं रखीं,सब महिला मजदूर।

काम खेत में कर रहीं, आँखों मै  है नूर।।

मेंढक खुश हैं देखकर,मस्त मस्त बरसात।

टरटों टरटों गा  रहे, कंठ  खोलकर  रात।।

झींगुर झीं-झीं कर रहा,जुगनू जलता आप।

रात ख़ास है सुरमई, उल्लू करे अलाप।।

खार-वह जगह जहाँ खेत होते हैं

अर्र-तता --बैलों को मोड़ने हेतु आवाज

कछोरा-साड़ी को मोड़कर घुटनो तक पहनने का

खा़स तरीका

दोहा

हेमंत कुमार मानिकपुरी

भाटापारा छत्तीसगढ़

Sunday 27 August 2017

दोहा

परत परत खुल जा रहा,बाबाओं का राज।

पूज रहे जिसको सभी,निकले चीड़ी बाज।।

हीरो को भी दे रहे,पल भर में ये मात।

बाहर योगी सा बने,अन्दर मैली घात।।

धरम, करम ,पैसा, सखा,पावर भी हैं साथ।

घी में डूबे हैं सभी,दोनो इनके हाथ।।

मठ इनका होता हरम,करम करे ये भोग।

अबला नारी का करे,ये वहसी संभोग।।

भोगी आशा राम है,भोगी राम रहीम।

रामपाल भी कम नही,ये सब मीठे नीम।।

अंध भक्त को चाहिए,सब कुछ को ले तोल।

फिर गुरु की सेवा करे,समझ जाय जब मोल।।

हेमंत कुमार मानिकपुरी

भाटापारा

छत्तीसगढ़

Thursday 10 August 2017

दोहा

शुक्ल पाख नवमी लगन,सावन महिना आय।
हरियर हरियर भोजली,बहिनी मन सिरजाय।।

धरती मा पानी गिरय,होवय बढ़िया धान।
इही आस ले के सबो,करय भोजली गान।।

धान गहूँ कोदो चना,चरिहा भर लहराय।
सब बहिनी सेवा करय,कतका मन ला भाय।।

दशमी के दिन भोजली,पीका फूटे तोर,
जब आए एकादशी,पाना निकले कोर।।

रूप दुवासे पींवरा,जइसे चमकय सोन।।
लहर लहर लहरा करे,देखव तो सिरतोन।

थाल फूल दीया सजे,पूजा के बड़ रीत।
गावय सेवा सब जने,देबी गंगा गीत।।

तेरस के दिन भोजली,रूप अनोखा पाय।
नान्हेपन ला कर बिदा,तरुनाई मा जाय।।

तिथि चउदस के दिन करय,पूजा पाहुन सार।
जम्मों भक्तन हे कहय,मात करव उपकार।।

पुन्नी के दिन माँ चलय,अपन सार निज धाम।
बहिनी मन बोहे रहय,आँसू अँचरा थाम।।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा छत्तीसगढ़

Tuesday 25 July 2017

दोहा


दोहा

काँसा के थारी रहय ,अउ हँड़िया के भात,
मार पालथी रँधनही,खावन ताते तात।

बटकी काँसा के रहय,पेंदी गहिरा गोल।
बने खात बासी बनय,स्वाद आय अनमोल।।

छर्रा छर्रा अउ लरम, गजब पैनहा भात।
परसँग अब्बड़ तो करय,ददा बबा मन खात।।

रहय कुँडे़रा बड़ जनिक,पेज पसावन जान।
हंडा ,हँउला मा धरय,पानी कस के तान।।

लोटा काँसा घर सबो, पीतल संग गिलास।
रहय नानकुन चरु घलो,गोड़ धोय बर खास।।

माटी के हथ फोड़वा,रखय आँच के ध्यान।
बिना तेल चीला बनय,बड़ पुरखा के ग्यान।।

हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा
छत्तीसगढ़

Friday 7 July 2017

दोहा

दोहा (13/11)
श्रृंगार रस

सोलह के दहलीज पर,यह कैसी झंकार।
नई नई दुनिया दिखे,नया नया श्रृंगार।।

होठों पर मादक हँसी,नयना झलके प्यार।
बातों से  मधुरस  झरे, अलबेली  है  नार।।

झुमका मानो कह रहे,कानो में रस घोल।
यौवन तुझपे आ गया,गोरी कुछ तो बोल।।

गला सुराही की तरह,काले लंबे बाल।
माथे पर चंदा लगे,बिन्दी मखमल लाल।।

दर्पण कंघी से हुआ,अनायास ही प्यार।
सजने-धजने है लगी,दिन मे सोलह बार।।

स्वप्न  सुनहरे  आ  गए, लेकर  के  बारात।
पिया-पिया मन कह उठा,नही चैन दिन-रात।।

नाच उठी पायल छनक,कँगना करती शोर।
प्रियतम मुझको ले चलो,प्रेम गर की ओर।।

हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा
छत्तीसगढ़

Sunday 2 July 2017

गीत

प्यासी नदियाँ प्यासी धरती
पर्वत प्यासा प्यासी घाटी
सब देख रहे हैं आओ रे
हे मेघा तुम नीर बरसाओ रे.. २..
नील गगन से पंख लगाकर
उतरो धरती रिमझिम गा कर
दिल की प्यास बुझाओ रे
हे मेघा तुम नीर बरसाओ रे..2..
खेत तरसते देख रहे हैं
बाग बगीचे सूख गये है
अब बागो मे फूल खिलाओ रे
हे मेघा तुम नीर बरसाओ रे..2..
नैना तरसे तुम बिन बादल
सूख गये हैं माँ का आँचल
तुम लहराओ बलखाओ रे
हे मेघा तुम नीर बरसाओ रे....2

Tuesday 27 June 2017

पढ़व लिखव (दोहा)

पढ़व-लिखव (दोहा 13/11)

पढ़व लिखव लइका तुमन,इही तुहँर ले आस।
सब धन दौलत ले बने,सिक्छा हे जी खास।।

कलम काम के जी हवय,करव रोज अभ्यास।
सीख स्वर अउ ककहरा ,झटकुन होवव पास।।

गुणा इबारत  सँग करव , भाग  घटाना  जोड़।
सीख सबोझन लव गणित,आलस पन ला छोड़।।

कूदत नाचत जी पढ़व, रस्ता रेंगत  जात।
खेल खेल मा सीखना,आय मँजा के बात।।

आस पास के लव तुमन,चलत फिरत संज्ञान।
खेत  खार  बारी  सबो , देखव गउ  गउठान।।

पढ़ना लिखना हे बने ,मन मा राखव ठान।
गुनव कढ़व सब झन बनव,देश राज के शान।।

आज्ञाकारी तुम  बनव,रखव  बड़े के मान।
पढ़ना तब होही सफल,सही कहँव मैं जान।।

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा
छत्तीसगढ़

Sunday 25 June 2017

दोहा

गरज गरज बादर बने,पानी कस के ढार।

खेत खार छलके मुही,छलके तरिया पार।।

रूख-राइ जंगल कहे, दे  हम ला  उपहार।

हरियर हरियर हम दिखन,जिनगी हमर सवाँर।।

नान्हेंकन बीजा गड़े,करत हवय गोहार।।

धरती झटकुन भींज तैं,देखँव मँय संसार।।

मेचका धरती मा दबे,हे पानी के आस।

टरटों टरटों जी हमूँ,गा के करबो रास।।

मानुस तन थर्राय हे,पा के अब्बड़ घाम।

पानी के बिन हे परे,गाड़़ा भर के काम।।

नाँगर चलही खेत भर,पाबो कँस के धान।

जाँगर हमर सुफल करव,हे जलधर भगवान।।

हेमंत कुमार मानिकपुरी

भाटापारा छत्तीसगढ़

Tuesday 13 June 2017

कविता

उमड़ घुमड़ करिया बादर,
पानी सरबर सरबर कर दे,
झुख्खा हे धरती के कोरा,
हे मेघ दूत तँय दया कर दे।

हे मेघ.....

उसनावत हे जम्मो परानी,
जग चिल्लावय पानी पानी,
अब दे फुहार नव जीवन बर,
झरर झरर बरसा कर दे।

हे मेघ......

जंगल के हरियाली बर,
चुरगुन के किलकारी बर,
बियाकुल चौपाया मन म,
शीतल नीर सरस भर दे।

हे मेघ.....

नँदिया तरिया खोचका डबरा,
गली खोर अमरइया नरवा,
जम्मो देखत हे आस लगाये,
सब ल पानी पानी कर दे।

हे मेघ....

बारी-बखरी ,खेती-किसानी,
सब ल चाही कस के पानी,
आँसू झिन किसान के बोहय,
अइसन तैं खुशहाली भर दे।

हे मेघ दूत तँय दया कर दे..

रचना
हेमंत मानिकपुरी
भाठापारा
छत्तीसगढ़

Wednesday 31 May 2017

दोहा

घूम लिए तीरथ सभी,मन आया ना चैन।
माँ की गोदी में तनय,कभी बिताओ रैन।।

काँटो पर चलती रही,दे तुमको कालीन।
बूढ़ी अम्मा की सदा,सेवा कर लो लीन।।

बाप बना घोड़ा कभी,जिस पर बैठे आप।
घोड़ा अब बूढ़़ा हुआ,आप बनो जी बाप।।

खून,पसीना कर तुझे,बड़ा किया है पाल।
ज्यादा मत थोड़ा सही,फर्ज चुकाओ लाल।।

तेरा  भी  बेटा  तुझे , छोड़  चलेंगे  मान।
अच्छा बोओगे तभी,सुफल मिले है जान।।

हेमंत कुमार मानिकपुरी

भाटापारा छत्तीसगढ़

Saturday 27 May 2017

दोहा


दोहे.....१३/११

दाई के अँगना छुटे,ददा बबा के प्यार।

काट बछर सोला डरे,जा मैना ससुरार।।

टोरे ले टूटय नही,लेख लिखे जे हाथ।

बेटी तँय पहुना रहे,बस अतके हे साथ।।

धर ले मइके के मया,इही तोर पहिचान।

सास ननँद देवर ससुर,सबके करबे मान।।

ददा  नवा  दाई  नवा , नवा  ठउर  हे  तोर।

अपन जान तँय राखबे,सबके मन ला जोर।।

अपन सजन के सँग सरग,अँगना घर संसार।

सपना मा झन सोंचबे, अहित कभू ससुरार।।

दोहे....

हेमंत कुमार

भाटापारा

Saturday 6 May 2017

कविता

ओह !गर्मी का दिन आया रे,
कूलर एसी मन भाया रे,
तर तर तर निकले पसीना,
गन्ने का रस कितना भाया रे ।

फ्रिजर मटके का दिन आया रे,
ठंडी पानी खूब पिलाया रे,
धू धू करके जले पूरा बदन,
तरबूजा खरबूजा मन भाया रे ।

अब तो भाजी बढ़ीया लागे रे,
खट्टा भी कितना मन भाया रे,
अब तो हर बाजारों के ठेले पर,
रसदार आम का मौसम आया रे ।

ककड़ी खीरा भी अब तो आया रे,
मन को खूब तृप्त कराया रे,
देख सम्हल कर चलना भैया,
गर्म हवावों(लू) का दिन आया रे....

           हे मं  त

Wednesday 3 May 2017

दोहा

दोहे.....

गरमी बाहर है बहुत,बिगड़ गया है रूप।

घर की खिड़की से सुबह,कहने आई धूप।।

धू-धू कर जलती धरा,मिले नही अब ठाँव।

है इतनी गरमी बढ़ी , सूरज  खोजे  छाँव।। 

 

धरती  फटने है  लगी,बरस रहा है  आग।

सड़कें चट चट जल रहीं,सूख गये सब बाग।।

 
 
इंद्र देव करने लगे,त्राहिमाम का जाप।

नदी ताल सब उड़ गये,बनकर जैसे भाप।।

तेज-तेज लू भी चले,खेत खार खलिहान।

जीव जन्तु सब हो रहे,गरमी से हलकान।।

हेमंत कुमार मानिकपुरी

भाटापारा  छत्तीसगढ़

Sunday 30 April 2017

दोहा

मात्रा ---13/11(दोहा)
पंखे  से  चलती  हवा,  गमले  पर है पेड़।
घाँस उगे छत के उपर,चरे जिसे सब भेड़।।

चौपाया बुक मे मिले, जंगल  टी वी  देख।
फिश घर मे पलने लगे,सही कहूँ मै लेख।।

बीबी सब कुछ जब लगे,कोई कैसे भाय।
बाप मरा  माता मरी, आँसू  कैसे  आय।।

दारू पी कर आ रहे,बोतल बोतल रोज।
घर पर इक दाना नही,बच्चे तरसे भोज।।

जब भी वो कूँ कूँ करे,मन भर आया प्यार।
माँ बिन चप्पल  के  चले, कुत्ता  बैठे  कार।।

काम धाम कुछ भी नही,हर दिन खेले ताश।
यही करम तो कर रहा,कई जनों  का  नाश।।

-–-रचना
हेमंत मानिकपुरी
भाटापारा छत्तीसगढ.

Thursday 27 April 2017

ग़ज़ल

1222/1222/122

ये सच कहने की हिम्मत है?नही तो,
कोई दिल  में  बगावत है? नही तो।

सदा-ए-दिल ही चाहत है?नही तो
मुहब्बत इक जियारत है?नही तो,

अकेला घर, अकेले कैद हो तुम
बुढ़ापे की ये कीमत है?नही तो

मेरी आँखें है गहरा इक समन्दर
तुम्हे लहरों की आदत है?नही तो

बहुत खामोश है वो कुछ दिनों से
किसी से कुछ शिकायत है? नहीं तो

हैं जिंदा लाशें हम सब इस जहाँ में,
ये सच सुनने की जुरअत है?नही तो

मै अपने घर मे इक घर ढूँढता हूँ,
यही क्या मेरी नक्बत है ?नही तो

ग़ज़ल
हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा छत्तीसगढ़

Wednesday 26 April 2017

दोहा

बस्तर रोता है सिसक,रोज देख अब लाश।

खून खराबे से हुआ,अमन चैन का नाश।।

कोयल की वाणी लगे,दुखियारी के बोल।

ममता की छाती फटी, मौत बजाती ढोल।।

महुआ की रौनक गई, झड़ा आम से बौर।

पत्ते सहमे से लगे,हवा बही कुछ और।।

बम के फल लगते जहाँ,पेड़-पेड़ पर आज।

धरती फटती सी लगे ,तड़के जैसे गाज।।

नेता सब झूठे लगे,करते सत्ता भोग।

पल पल मरते हैं यहाँ,भोले भाले लोग।।

डरा डरा करते रहे,सत्ता सुख के काज।

माओवादी ये बता,क्यूँ यह रावण राज।।

कुर्बानी कब तक चले,कब तक ममता रोय।

मारो चुन चुन के सभी,हत्यारा जो होय।।

दोहे

हेमंत कुमार मानिकपुरी

भाटापारा

Sunday 23 April 2017

कविता

कितना रोई होगी वो छुप छुपकर,
बरसती होगी  यादें बरसात बनकर,
ये बरखा यूं ही नही बरस रही थी,
पूरा मन भीगा होगा बरसात बनकर ।

गिर रही बारिश की बूंदे टपटप कर,
गालों पे बहते होंगे दरिया बनकर,
आंखें लाल लाल हुई होंगी,
बेहाल हुआ होगा उनका रो रो कर।

कड़कती होगी बिजली मन मे रह रह कर,
सूनापन  मायूसी होंगी परछाईंयाँ बनकर,
तन भीगा मन जलता होगा विह्वल होकर,
क्यों हालात बदलते नही मौसम बनकर ।

                     हे मं त

Friday 21 April 2017

कविता

दूर क्षितिज पर बजते ढोल,

अनहद बाजे जहाँ अनमोल,

आनंद की वर्षा होती जहाँ,

दिन नही न रात घनघोर।

दूर क्षितिज पर....

श्वेत धवल प्रकाश चाँदनी,

विचारों की शून्य आवृत्ती,

सुख जहाँ स्वार्थ से परे,

सत्ता नही न कोई गठजोड़।

दूर क्षितिज ....

ओम् के स्वर की साधना है,

तंद्रा नही वहाँ आराधना है,

जहाँ कुंडलिनी की जागरण है,

भोग नही जहाँ हैं योगी के बोल।

दूर क्षितिज पर.....।

न वासना न कोई व्यभिचार,

समाधी है सिद्ध हस्थों की,

संभोग की अनंत अनुभूती है,

जहाँ शरीर उर्ध्वगामी अनमोल।

दूर क्षितिज पर बजते ढोल।

रचना

हेमंत कुमार

भाटापारा

17/5/2015

Thursday 20 April 2017

ग़ज़ल

2122, 212, 2122, 212

उससे मुझको सच मे कोई शिकायत भी नही,
हाँ मगर दिल से मिलूँ अब ये चाहत भी नही।

इस बुरुत पर ताव देने का मतलब क्या हुआ,
गर बचाई जा सके खुद की इज्जत भी नही।

अब अँधेरा है तो इसका गिला भी क्या करें,
ठीक तो अब रौशनी की तबीअत भी नही।

आती हैं आकर चली जाती हैं यूँ ही मगर,
इन घटाओं मे कोई अब इक़ामत भी नही।

जुल्म सहने का हुआ ये भी इक अन्जाम है,
अब नजर आखों में आती बगावत भी नहीं ।

बुरुत-मूँछ
इक़ामत-ठहराव

ग़ज़ल

हेमंत कुमार

भाटापारा छत्तीसगढ़

8871805078

Ok------