Thursday 12 August 2021

दाई "सरसी छंद"

कोनो  काबर  सुध लेवै  जी, कोन बनै रखवार।

परे  हवै  डारा  पाना  जस, दाई  बिन  आधार।।



झिथरा  चूँदी  आँखी  घुसरे, गुलगुलहा हे गाल।

टुटहा खटिया चिथरा कथरी, हाल हवै बे-हाल।।



मइला ओकर कथरी चद्दर, मइला हे सरि अंग।

बुढ़त काल मा धरखन नइ हे,जिनगी हे भिदरंग।।


रात रात भर खाँसत रहिथे, आँखी हे कमजोर।

लाठी धर लटपट उठथे वो, लगा पाँव मा जोर।।



परे रथे वो छिदका कुरिया, कोन्टा मा दिन-रात।

बेटा  बहू  कुभारज  होगे , कोन  खवावै  भात।।



शहर  बसे  हे  बेटा अपने,  गाँव गली ला त्याग।

घर   रखवारी  दाई  बाँटा, कइसन  हे  ये भाग।।



संझा   बिहना   आँखी   ताके, लेथे  एक्के  नाँव।

सोंचत  रहिथे आही बेटा, छोंड़ शहर अब गाँव।।


सुख   पाये   के  बेरा दाई,  पाइस  नइ  आराम।

टुटहा  जाँगर  बोहे-बोहे,  करत  हवै सब काम।।



मया-प्रीत के दाई देवय  , बुढ़त काल मा दाम।

काल कोठरी के जिनगी हे, तहीं बता अब राम।।



हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़
"सरसी छंद"

Thursday 22 July 2021

आल्हा

काले   काले    प्यारे बादल,
आकर कर दो अब उपकार ।
बरसाओ तुम झर झर पानी,
खेतों  में  बह   जाये    धार।।



खग,चौपाया    देख  रहे हैं,
भरे हुए   सब मन में आस।
माओ-माओ  मोर   पुकारे,
आओ बरखा हर लो प्यास।।



गड़ गड़ गड़ गड़ बादल गरजे,
बिजली   चमके अगम अपार।
झूम-झूम   के   बरखा   बरसे ,
सँग      झूमें    सारा   संसार।।



कंधों   पर   नाँगर   धर  आए,
देखो   कैसे    मस्त   किसान।
खेत   जोतने   इस   धरती पर ,
जैसे       उतरा   हो   भगवान।।



हरियाली    छाईं    धरती   पर,
लहरायें    मन   भर     कांतार।
मस्त    मगन    हो  गाए झींगुर,
गाये   मेंढक   मेघ      मल्हार।।



ताल-तलैया   छलकें भर-भर,
झरने    बहते     हैं   सुरताल।
बाँध  लबालब  जल  से देखो,
बारिश   अच्छी   हैं  इस साल।।



गाँवों     में     रौनक    छायेगी,
शहरों    में    होगा      व्यापार।
आयेंगी   जब    अच्छी फसलें,
सबका     होगा        बेड़ापार ।।



हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा छत्तीसगढ़

Sunday 11 July 2021

बरसात (छ .गढ़ी बाल कविता)

करिया-करिया आवय बादर।

पानी   तब   बरसावय बादर।।


टप-टप  चूहय  छानी  परवा।

छलकय तरिया, छलकय नरवा।।


खेत - खार  मा   पानी-पानी।

जामय  बीजा  आनी बानी।।


अँधियारी मा बिजली बर गे।

गरजिस बादर  नोनी डर गे।।


गली-खोर नरवा कस लागय।

लइका कूदय दउँड़य भागय।।


कागज  के  डोंगा अब बनगे।

हमर   बबा  के  छाता तनगे।।


रात  मेंचका  टर - टर  गावय।

कूदय नाचय  मँजा  उड़ावय।।


हँड़िया  ले  अब  होरा लावव।

माई   पिल्ला   बइठे  खावव।।


हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा छ.ग.

Monday 5 July 2021

gazal

212  212   212  2

कुछ दुआ कुछ दवा काम आए

तब कहीं मुझको  आराम आए


झूम   उठते    हैं  बनके  शराबी

गर  लबों  पे   तिरा  नाम  आए


हो  मिरे   गाँव  की  पाक  मिट्टी

जिन्दगी  जब  तिरा  शाम आए


चाँदनी    मुस्कुराती  सफ़क़  पे

हँस्के   तू  जब कभी बाम आए


उस   गली की अजब दास्ताँ थी

जब भी गुजरे  तो बदनाम आए


हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा छत्तीसगढ़



Monday 21 June 2021

gazal

1222 1222 1222 

मुझे  इस आग  से  बरबाद  होना  है

बला  गर  इश्क  तो  दो  चार  होना है

मेरे   घर  के  चरागों  ने गजब  ढाया

ये  तय है  छप्परों  को खाक होना है

कहाँ  जाऊँ  कहाँ  पाऊँ सकूँ के पल

मेरा  कोई  नही  हमदम  न  होना  है

अँधेरों  से  गिला  करता नही अब मैं

न  जाने  किस  गली में शाम होना है

न दिल को समझे तो क्या क्या करे कोई

वो   खुशबू   है   उसे   आजाद   होना है

हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा छत्तीसगढ़

Thursday 10 June 2021

gazal

212 212 212 2 

खेतों में खुद को आबाद कर लूँ

जिन्दगी चल तुझे राख कर  लूँ

कब  तलक  तू  पड़ी  यूँ  रहेगी

फस्लों  के  वास्ते  खाद  कर लूँ

कैद   दीवारों   मे   होना  ही  है

तो  मुझे  पहले बुनियाद कर लूँ

खुशबुएँ  फैल  जाएँगी  हर  सूँ

आज  फूलों को आजाद कर लूँ

मै  बिखरता  रहूँ  तो   है  जीवन

या  सिमट कर तुझे नाश कर लूँ

हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा


Sunday 23 May 2021

ग़ज़ल



उलझ ता  रहा   उम्र   भर   बेकसी  से

नही कुछ भी हासिल मिला जिन्दगी से



बहल   ता  रहा  मैं  यूँ   बातों में उनकी

वो   नश्तर   चुभाते   रहे   सादगी    से



चलो     कोई तो  जानता  है  मुझे अब 

बहुत  खुश  हूँ मैं  अपनी  आवारगी से



मैं   लिखता  रहा  वो मिटाती रही सब

अजब  दासताँ  थी  मेरी  जिन्दगी   से



कभी  शह्र  से  उनके  गुजरूँ तो देखूँ

वो  हैं  दूर  कितने   अभी  रिंदगी   से



मुझे   छोड़ना  इतना   आसाँ  नही  है

मिरा   नाता   है   प्यार  से  दुश्मनी  से



कयामत न होगी तो क्या होगा जानम

अगर  भर  गया  मै  तिरी आशिक़ी से


 
चरागों  को  जिसने  जलाया था सदियों

मिलाता  हूँ  आ  चल तुझे  उस  बदी से


----हेमंत कुमार "अगम"

    भाटापारा छ.ग.

Wednesday 21 April 2021

प्रेम के दोहे




तार तार तन मन हुआ, मन भर गया उमंग।
आज  हवा  सहला  गई, मेरा  गोरा    अंग।।



बालों के लट खुल गए, आनन हुआ गुलाब।
महुआ से तन भर गया ,झरने लगी   शराब।।



ना खाने का   मन करे,  ना लगती है प्यास।
जाने किसको खोजती,आँखें इस मधुमास।।



हँसती गाती आप ही,करती खुद से बात।
नयन रोज तारे   गिने, करवट पर है रात।।



दर्पण   कंघी से हुआ,अनायास ही प्यार।
सजने धजने हूँ लगी, दिन में सोलह बार।।



मन आँगन में कौन है,आता  जाता रोज।
ह्रदय कुंड में खोजती,पावन वही सरोज।।



आँख भरी मधु ताल से, लंक  हुई शैतान।
ये अल्हड अँगड़ाइयाँ, ना ले ले अब जान।।



पायल भी बजने लगी,करता झुमका शोर।
कुहु-कुहु गाने  लगी,  बन कोयलिया भोर।।



अधर पृष्ठ गूँगी  भई ,नयन करे हर बात।
पेपर उल्टा बाँच रही,अद्भुत यह हालात।।



ढोलक बिन बजने लगा,सुमधुर मनहर ताल।
कल्पित मन भावन सजन,रसने लगा रसाल।।



सोंच समझ रखना कदम,उड़ता मन ही जाय।
सोलह का  यह रंग है, सखी   मुझे  समझाय।।



हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा

Thursday 8 April 2021

नवगीत

                         दो पैसे   जो हाथ आ गए 
                         खुद को तू राजा कहता है


भूल  गया बीते पल कैसे
घर आँगन परछी खपरेलें
अम्मा बापू  की बिस्तर में
चुहती जब  बरसाती  रेलें


                       गाँव गली ना याद रहा अब
                       केवल    पैसों   में बहता है


पेट   काटकर जिसने तुझको
अपना  भी भाग खिलाया था
जब  तू  रोता  रात  रात   भर
खुद  जगकर तुझे सुलाया था


                         ऐसी माता की ममता को 
                         अपनी कृत्यों से छलता है


जिस   बरगद की  छाया में तू
रोया   गाया   हँसकर    बोला
जनम लिया जिस पावन माटी 
उसको    भी   पैसों  में  तोला


                         भूल   गया  सब रिस्ते नाते
                         जाने किस  दुनिया रहता है


अम्मा     बापू  की  सुध लेने
गाँव  कभी  ना मुड़कर देखा
संगी  साथी   अस्पृश्य    हुए
खींच गया इक लक्ष्मण रेखा


                            अहंकार से  मद    होकर
                            पागल हाथी सा फिरता है
दो    पैसे   जो   हाथ आ गए
खुद   को   तू  राजा कहता है




हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा

Sunday 4 April 2021

नवगीत

                         साँसों के हर उच्छवास में
                         जीवन का आना जाना है


कभी प्रेम का सावन मिलता
कभी    वेदना की सिहरन है
चलता फिरता   धूप छाँव ही
मानव  जीवन  का  दरपन है


                          कष्टों की बेदी में जलकर 
                          अंतहीन सुख को पाना है


वातायन   के झोंको से जो
अपना  तन-मन बहलाते हैं
फटे पाँव की कीमत उनको
ऐसे   समझ   नही  आते हैं


                   समय गुजर जाता जब आगे
                   कर्मों  पर   फिर  पछताना है


दुर्गम है श्रम काज मगर तुम
करने   से  पहले   डरते   हो!
पथरीली   राहों   पर    चाहो
सुन्दर    फूल उगा सकते हो


                        संघर्ष नही है जिन बाँहों में
                        उनका  ना ठौर ठिकाना है


हेमंत  कुमार "अगम"

भाटापारा छत्तीसगढ़









Friday 2 April 2021

नवगीत


          मैं   सावन   बरखा  बन  बरसूँ
          तुम सुर  गाओ  मल्हार   पिया


तन  हो जैसे सूखी लकड़ी
मन   को बेधे बिरह कटारी
आओ  भी  देखो आँखों में
पतझड़ सा है मौसम भारी


            युग्म   पत्र   सा तुम बन जाओ
            मैं   हो    जाऊँ   कचनार पिया


मेरे    बिरहा    के गीतो   में
आ  जाए  मद मस्त खुमारी
मदिरा बन छू लो अधरों को
तन-मन  हो  जाए  मतवारी


             दुनिया   की  हर रंग भुलाकर
             तन   मन  दूँ  मैं न्योछार पिया


तुम भर  लो बाँहो मे मुझको
प्रेम  सुधा  रस उर  पाने को
बूढ़ी  आहें  फिर  जग  आई
प्रेम  गीत  मन  बरसाने  को


            मैं    यौवन    की   रंभा   जैसी
            तुम  कुसुमाकर  रतनार   पिया


हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा  छत्तीसगढ़


Monday 22 March 2021

नव गीत

 जीवन    देने   वाला  तू   क्यूँ
         एसे   ही   हमको   छलता  है


आमाशय  की  इस पीड़ा में
खाने का   अद्भुत लफड़ा है
भूख बहुत ही कड़वा सच है
यह  दानव  निष्ठुर  उघड़ा  है


            निर्धनता      के चक्रवात   में
            ये   जीवन   जैसे   मरता   है


खाली पेट पिचक कर कहती
निकल    रहे    हैं   सारे  हड्डी
हालत अब तो नाजुक-नाजुक 
कुल्हे  पर   ना  टिकती  चड्डी


             क्यूँ  हमको  नंगा   करके   ही
             तेरा        गौरव     बढ़ता    है


कूड़े    के     ढेरों   पर   फैले
झूठन   पर    भी    लड़ते  हैं
जीने    की    उत्कंठा    पाले
पल-पल  हर-दिन  ये मरते हैं

 
                हिम्मत  देखो  इन  साँसों की
                जीवन   जैसे    जीवटता   है          


शीशी     बोतल    इनके   अपने
सत्य     यही    मानें    ना    मानें
फटे      पुराने       कपड़े    पहनें
अपनी     डफली    अपने    गानें


                 बचपन   का  संघर्ष लादकर
                 जाने    कैसे  मन   हँसता  है


हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा

Thursday 18 March 2021

बासी

                 बासी

मोला    आथे  रोज  खवासी
अबड़   सुहाथे   चटनी-बासी

बासी  के  तँय  गुन  ला गा ले
बड़ बड़  कवँरा धर  के खा ले

सुन  लइका सुन लव सँगवारी
बासी   मा   हे   ताकत   भारी

बासी   रोज  डपट   के  खाथे
तभे  बबा  कस  के  अटियाथे


एकर    खट्टापन    मा   रहिथे
दवा  रोग   के सबझन कहिथे

मही   डार  ले  तँय  बासी  मा
ये   लाभ   करे   उबकासी  मा

आय    देंवता  कस  ये  बासी
निर्धनता    के   काबा   कासी

जुग जुग जी तँय रह अविनासी
पेट   भरे    बर    सबके   बासी

हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा










Tuesday 16 March 2021

बाल कविता

चिड़िया  रानी  चिड़िया  रानी
आओ   खा  लो   दाना  पानी

रोज सुबह तुम उड़कर आना
तोता   मैना    सबको   लाना

मम्मी    देती    बढ़िया    दाना
मिलकर फिर तुम मौज उड़ाना

प्यास लगे  तो  छत पर जाना
पानी  पी  कर  प्यास  बुझाना

धमा-चौकड़ी  अब  ना  ना ना
आओ   मिलकर   गाएँ  गाना

बाल कविता

हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा

Sunday 14 March 2021

नवगीत



     "आ सूरज से आँख मिलाएँ"

       हिम्मत की गाथा फिर लिखने
       आ सूरज से आँख मिलाएँ


अंधकार की इस दुनिया में
मन की काली सी रातें हैं
पढ़े लिखे लोगों में होती 
अब बौने पन की बातें हैं


          चल हाथ पकड़ कर उनको भी
          सही राह चलना सिखलाएँ


अंधे हैं सब आँखों  वाले
झूठे तन पर इतराते हैं
ढोंगी बनकर ये अपना मन
एसे ही तो बहलाते हैं


            अंधो की नगरी में आओ
            कोई दीप जलाकर आएँ


जीवन के इन चार दिनो में
काम लोभ जैसे चोखा है
पैसा पैसा केवल पैसा
बस मृगतृष्णा  का धोखा है


              उलट पुलट की इस बाँसी में
              धुन फिर से हम एक बजाएँ


हेमंत कुमार  "अगम"

भाटापारा




Sunday 31 January 2021

दोहा गीत

     माँ सत् की आराधना,माँ सुखदायक नाम।
      माँ जीवन का सार है,माँ है चारो धाम।।
     


जीवन क्यूँ सड़ता रहा,इसी बात को तोल।
माँ की ममता का नही,शायद समझा मोल।।



     माँ की सेवा कर सतत् ,यही सार है काम
     माँ जीवन का सार है,माँ है चारो धाम.....



माँ मखमल की बिस्तरा,माँ फूलों की गाँव।
माँ सर्दी की धूप सी,माँ बरगद की छाँव।।



     माँ सूरज की रोशनी,माँ मुस्काती शाम।
     माँ जीवन का सार है,माँ है चारो धाम......


माँ अंधे की आँख है,माँ लंगड़े की पाँव।
माँ से बढ़कर है नही,दूजा कोई ठाँव।।


     माँ की आँचल सा कभी, नही मिले आराम।
     माँ जीवन का सार है,माँ है चारो धाम.....



माँ गुड़ की मीठी डली,माँ चाँवल की खीर।
माँ चटकारा चाट की,माँ समझे हर पीर।।

       माँ की गोदी में बसा,जीवन का अभिराम।
       माँ जीवन का सार है,माँ है चारो धाम.....



हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़

Saturday 30 January 2021

लघुकथा

लघु कथा

आज दादा जी गुमसुम थे।सुबह आधी कप चाय ही पिये,पेपर भी उल्टा ही पकड़े थे।कभी उठ खड़े होते कभी बैठ जाते ।शायद आज उनका मन बेचैनियों से भरा था! मुझे यह समझने में देर न लगी ,आज रक्षा बंधन का त्यौहार जो था और आज पहिली बार राखी में उनकी बहन  उपस्थित नहीं थी।उस दिन भी वो कितना रोये थे जब बहन की अचानक ही मृत्यु हो गई थी।सचमुच उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था।
दादा जी अचानक कुर्सी से उठे और तेज कदमों से अपने कमरे की ओर जाने लगे ,शायद कुछ ढूँढ रहे थे ।अपनी पुरानी सल्लूखा पर हाथ डाला और कुछ टटोलने लगे शायद चाबियाँ थीं।
उसने आलमारी के ऊपर रखी पुरानी संदूक को नीचे उतारा और अपनी धोती के छोर से पोंछने लगे फिर चाबी से ताला खोला।कुछ इधर उधर देखे कुछ ढूँढे फिर बंद कर दिया और आकर बिस्तर पर बैठ गये और अपनी कलाईयों को देखने लगे ,कुछ आँखें छलछलाई फिर गंभीर हो गये।मै भी अपने आँसुओं को रोक न पाया था।
मुझे वो सब बातें याद आने लगीं जब दादा जी अपनी बहन और अपने बचपन की कहानियाँ हँस हँसकर सुनाते थे।कैसे कभी दोनो ने मिलकर दुध से मलाईयाँ चुराई थीं ,कभी साथ आम चुराए थे ,बातों बातों पर झगड़ना फिर अगले ही पल एक हो जाना वगैरह बगैरह..।
अचानक मेरे कान में आवाज आई भैया ..भैया मै आ गई ,मेरी छोटी बहन अपने ससुराल से आ गई थी उसने मुझे गले से लगाया और कुछ बातें होने लगी।बहन नाराज होते हुए बोली क्या भैया आप अभी तक तैयार भी नही हुए हो..चलो जल्दी तैयार हो जाओ ..
मैने अपनी बहन से दादा जी के संबन्ध मे कुछ बातें की और नहाने चला गया।
जब मैं राखी बँधवाने बैठा तो बहन ने दादा जी को भी बुला लिया था और हम दोनो को साथ-साथ राखी बाँधी।दादा जी की आँखे अपनी कलाई को देखते ही चमक उठी,और दूसरे ही क्षण फूट-फूट कर रो पड़े ये वही पुरानी संदूक मे रखी राखी थी.... 

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़