Sunday 30 April 2017

दोहा

मात्रा ---13/11(दोहा)
पंखे  से  चलती  हवा,  गमले  पर है पेड़।
घाँस उगे छत के उपर,चरे जिसे सब भेड़।।

चौपाया बुक मे मिले, जंगल  टी वी  देख।
फिश घर मे पलने लगे,सही कहूँ मै लेख।।

बीबी सब कुछ जब लगे,कोई कैसे भाय।
बाप मरा  माता मरी, आँसू  कैसे  आय।।

दारू पी कर आ रहे,बोतल बोतल रोज।
घर पर इक दाना नही,बच्चे तरसे भोज।।

जब भी वो कूँ कूँ करे,मन भर आया प्यार।
माँ बिन चप्पल  के  चले, कुत्ता  बैठे  कार।।

काम धाम कुछ भी नही,हर दिन खेले ताश।
यही करम तो कर रहा,कई जनों  का  नाश।।

-–-रचना
हेमंत मानिकपुरी
भाटापारा छत्तीसगढ.

Thursday 27 April 2017

ग़ज़ल

1222/1222/122

ये सच कहने की हिम्मत है?नही तो,
कोई दिल  में  बगावत है? नही तो।

सदा-ए-दिल ही चाहत है?नही तो
मुहब्बत इक जियारत है?नही तो,

अकेला घर, अकेले कैद हो तुम
बुढ़ापे की ये कीमत है?नही तो

मेरी आँखें है गहरा इक समन्दर
तुम्हे लहरों की आदत है?नही तो

बहुत खामोश है वो कुछ दिनों से
किसी से कुछ शिकायत है? नहीं तो

हैं जिंदा लाशें हम सब इस जहाँ में,
ये सच सुनने की जुरअत है?नही तो

मै अपने घर मे इक घर ढूँढता हूँ,
यही क्या मेरी नक्बत है ?नही तो

ग़ज़ल
हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा छत्तीसगढ़

Wednesday 26 April 2017

दोहा

बस्तर रोता है सिसक,रोज देख अब लाश।

खून खराबे से हुआ,अमन चैन का नाश।।

कोयल की वाणी लगे,दुखियारी के बोल।

ममता की छाती फटी, मौत बजाती ढोल।।

महुआ की रौनक गई, झड़ा आम से बौर।

पत्ते सहमे से लगे,हवा बही कुछ और।।

बम के फल लगते जहाँ,पेड़-पेड़ पर आज।

धरती फटती सी लगे ,तड़के जैसे गाज।।

नेता सब झूठे लगे,करते सत्ता भोग।

पल पल मरते हैं यहाँ,भोले भाले लोग।।

डरा डरा करते रहे,सत्ता सुख के काज।

माओवादी ये बता,क्यूँ यह रावण राज।।

कुर्बानी कब तक चले,कब तक ममता रोय।

मारो चुन चुन के सभी,हत्यारा जो होय।।

दोहे

हेमंत कुमार मानिकपुरी

भाटापारा

Sunday 23 April 2017

कविता

कितना रोई होगी वो छुप छुपकर,
बरसती होगी  यादें बरसात बनकर,
ये बरखा यूं ही नही बरस रही थी,
पूरा मन भीगा होगा बरसात बनकर ।

गिर रही बारिश की बूंदे टपटप कर,
गालों पे बहते होंगे दरिया बनकर,
आंखें लाल लाल हुई होंगी,
बेहाल हुआ होगा उनका रो रो कर।

कड़कती होगी बिजली मन मे रह रह कर,
सूनापन  मायूसी होंगी परछाईंयाँ बनकर,
तन भीगा मन जलता होगा विह्वल होकर,
क्यों हालात बदलते नही मौसम बनकर ।

                     हे मं त

Friday 21 April 2017

कविता

दूर क्षितिज पर बजते ढोल,

अनहद बाजे जहाँ अनमोल,

आनंद की वर्षा होती जहाँ,

दिन नही न रात घनघोर।

दूर क्षितिज पर....

श्वेत धवल प्रकाश चाँदनी,

विचारों की शून्य आवृत्ती,

सुख जहाँ स्वार्थ से परे,

सत्ता नही न कोई गठजोड़।

दूर क्षितिज ....

ओम् के स्वर की साधना है,

तंद्रा नही वहाँ आराधना है,

जहाँ कुंडलिनी की जागरण है,

भोग नही जहाँ हैं योगी के बोल।

दूर क्षितिज पर.....।

न वासना न कोई व्यभिचार,

समाधी है सिद्ध हस्थों की,

संभोग की अनंत अनुभूती है,

जहाँ शरीर उर्ध्वगामी अनमोल।

दूर क्षितिज पर बजते ढोल।

रचना

हेमंत कुमार

भाटापारा

17/5/2015

Thursday 20 April 2017

ग़ज़ल

2122, 212, 2122, 212

उससे मुझको सच मे कोई शिकायत भी नही,
हाँ मगर दिल से मिलूँ अब ये चाहत भी नही।

इस बुरुत पर ताव देने का मतलब क्या हुआ,
गर बचाई जा सके खुद की इज्जत भी नही।

अब अँधेरा है तो इसका गिला भी क्या करें,
ठीक तो अब रौशनी की तबीअत भी नही।

आती हैं आकर चली जाती हैं यूँ ही मगर,
इन घटाओं मे कोई अब इक़ामत भी नही।

जुल्म सहने का हुआ ये भी इक अन्जाम है,
अब नजर आखों में आती बगावत भी नहीं ।

बुरुत-मूँछ
इक़ामत-ठहराव

ग़ज़ल

हेमंत कुमार

भाटापारा छत्तीसगढ़

8871805078

Ok------