Monday 22 March 2021

नव गीत

 जीवन    देने   वाला  तू   क्यूँ
         एसे   ही   हमको   छलता  है


आमाशय  की  इस पीड़ा में
खाने का   अद्भुत लफड़ा है
भूख बहुत ही कड़वा सच है
यह  दानव  निष्ठुर  उघड़ा  है


            निर्धनता      के चक्रवात   में
            ये   जीवन   जैसे   मरता   है


खाली पेट पिचक कर कहती
निकल    रहे    हैं   सारे  हड्डी
हालत अब तो नाजुक-नाजुक 
कुल्हे  पर   ना  टिकती  चड्डी


             क्यूँ  हमको  नंगा   करके   ही
             तेरा        गौरव     बढ़ता    है


कूड़े    के     ढेरों   पर   फैले
झूठन   पर    भी    लड़ते  हैं
जीने    की    उत्कंठा    पाले
पल-पल  हर-दिन  ये मरते हैं

 
                हिम्मत  देखो  इन  साँसों की
                जीवन   जैसे    जीवटता   है          


शीशी     बोतल    इनके   अपने
सत्य     यही    मानें    ना    मानें
फटे      पुराने       कपड़े    पहनें
अपनी     डफली    अपने    गानें


                 बचपन   का  संघर्ष लादकर
                 जाने    कैसे  मन   हँसता  है


हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा

Thursday 18 March 2021

बासी

                 बासी

मोला    आथे  रोज  खवासी
अबड़   सुहाथे   चटनी-बासी

बासी  के  तँय  गुन  ला गा ले
बड़ बड़  कवँरा धर  के खा ले

सुन  लइका सुन लव सँगवारी
बासी   मा   हे   ताकत   भारी

बासी   रोज  डपट   के  खाथे
तभे  बबा  कस  के  अटियाथे


एकर    खट्टापन    मा   रहिथे
दवा  रोग   के सबझन कहिथे

मही   डार  ले  तँय  बासी  मा
ये   लाभ   करे   उबकासी  मा

आय    देंवता  कस  ये  बासी
निर्धनता    के   काबा   कासी

जुग जुग जी तँय रह अविनासी
पेट   भरे    बर    सबके   बासी

हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा










Tuesday 16 March 2021

बाल कविता

चिड़िया  रानी  चिड़िया  रानी
आओ   खा  लो   दाना  पानी

रोज सुबह तुम उड़कर आना
तोता   मैना    सबको   लाना

मम्मी    देती    बढ़िया    दाना
मिलकर फिर तुम मौज उड़ाना

प्यास लगे  तो  छत पर जाना
पानी  पी  कर  प्यास  बुझाना

धमा-चौकड़ी  अब  ना  ना ना
आओ   मिलकर   गाएँ  गाना

बाल कविता

हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा

Sunday 14 March 2021

नवगीत



     "आ सूरज से आँख मिलाएँ"

       हिम्मत की गाथा फिर लिखने
       आ सूरज से आँख मिलाएँ


अंधकार की इस दुनिया में
मन की काली सी रातें हैं
पढ़े लिखे लोगों में होती 
अब बौने पन की बातें हैं


          चल हाथ पकड़ कर उनको भी
          सही राह चलना सिखलाएँ


अंधे हैं सब आँखों  वाले
झूठे तन पर इतराते हैं
ढोंगी बनकर ये अपना मन
एसे ही तो बहलाते हैं


            अंधो की नगरी में आओ
            कोई दीप जलाकर आएँ


जीवन के इन चार दिनो में
काम लोभ जैसे चोखा है
पैसा पैसा केवल पैसा
बस मृगतृष्णा  का धोखा है


              उलट पुलट की इस बाँसी में
              धुन फिर से हम एक बजाएँ


हेमंत कुमार  "अगम"

भाटापारा