Wednesday 21 April 2021

प्रेम के दोहे




तार तार तन मन हुआ, मन भर गया उमंग।
आज  हवा  सहला  गई, मेरा  गोरा    अंग।।



बालों के लट खुल गए, आनन हुआ गुलाब।
महुआ से तन भर गया ,झरने लगी   शराब।।



ना खाने का   मन करे,  ना लगती है प्यास।
जाने किसको खोजती,आँखें इस मधुमास।।



हँसती गाती आप ही,करती खुद से बात।
नयन रोज तारे   गिने, करवट पर है रात।।



दर्पण   कंघी से हुआ,अनायास ही प्यार।
सजने धजने हूँ लगी, दिन में सोलह बार।।



मन आँगन में कौन है,आता  जाता रोज।
ह्रदय कुंड में खोजती,पावन वही सरोज।।



आँख भरी मधु ताल से, लंक  हुई शैतान।
ये अल्हड अँगड़ाइयाँ, ना ले ले अब जान।।



पायल भी बजने लगी,करता झुमका शोर।
कुहु-कुहु गाने  लगी,  बन कोयलिया भोर।।



अधर पृष्ठ गूँगी  भई ,नयन करे हर बात।
पेपर उल्टा बाँच रही,अद्भुत यह हालात।।



ढोलक बिन बजने लगा,सुमधुर मनहर ताल।
कल्पित मन भावन सजन,रसने लगा रसाल।।



सोंच समझ रखना कदम,उड़ता मन ही जाय।
सोलह का  यह रंग है, सखी   मुझे  समझाय।।



हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा

Thursday 8 April 2021

नवगीत

                         दो पैसे   जो हाथ आ गए 
                         खुद को तू राजा कहता है


भूल  गया बीते पल कैसे
घर आँगन परछी खपरेलें
अम्मा बापू  की बिस्तर में
चुहती जब  बरसाती  रेलें


                       गाँव गली ना याद रहा अब
                       केवल    पैसों   में बहता है


पेट   काटकर जिसने तुझको
अपना  भी भाग खिलाया था
जब  तू  रोता  रात  रात   भर
खुद  जगकर तुझे सुलाया था


                         ऐसी माता की ममता को 
                         अपनी कृत्यों से छलता है


जिस   बरगद की  छाया में तू
रोया   गाया   हँसकर    बोला
जनम लिया जिस पावन माटी 
उसको    भी   पैसों  में  तोला


                         भूल   गया  सब रिस्ते नाते
                         जाने किस  दुनिया रहता है


अम्मा     बापू  की  सुध लेने
गाँव  कभी  ना मुड़कर देखा
संगी  साथी   अस्पृश्य    हुए
खींच गया इक लक्ष्मण रेखा


                            अहंकार से  मद    होकर
                            पागल हाथी सा फिरता है
दो    पैसे   जो   हाथ आ गए
खुद   को   तू  राजा कहता है




हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा

Sunday 4 April 2021

नवगीत

                         साँसों के हर उच्छवास में
                         जीवन का आना जाना है


कभी प्रेम का सावन मिलता
कभी    वेदना की सिहरन है
चलता फिरता   धूप छाँव ही
मानव  जीवन  का  दरपन है


                          कष्टों की बेदी में जलकर 
                          अंतहीन सुख को पाना है


वातायन   के झोंको से जो
अपना  तन-मन बहलाते हैं
फटे पाँव की कीमत उनको
ऐसे   समझ   नही  आते हैं


                   समय गुजर जाता जब आगे
                   कर्मों  पर   फिर  पछताना है


दुर्गम है श्रम काज मगर तुम
करने   से  पहले   डरते   हो!
पथरीली   राहों   पर    चाहो
सुन्दर    फूल उगा सकते हो


                        संघर्ष नही है जिन बाँहों में
                        उनका  ना ठौर ठिकाना है


हेमंत  कुमार "अगम"

भाटापारा छत्तीसगढ़









Friday 2 April 2021

नवगीत


          मैं   सावन   बरखा  बन  बरसूँ
          तुम सुर  गाओ  मल्हार   पिया


तन  हो जैसे सूखी लकड़ी
मन   को बेधे बिरह कटारी
आओ  भी  देखो आँखों में
पतझड़ सा है मौसम भारी


            युग्म   पत्र   सा तुम बन जाओ
            मैं   हो    जाऊँ   कचनार पिया


मेरे    बिरहा    के गीतो   में
आ  जाए  मद मस्त खुमारी
मदिरा बन छू लो अधरों को
तन-मन  हो  जाए  मतवारी


             दुनिया   की  हर रंग भुलाकर
             तन   मन  दूँ  मैं न्योछार पिया


तुम भर  लो बाँहो मे मुझको
प्रेम  सुधा  रस उर  पाने को
बूढ़ी  आहें  फिर  जग  आई
प्रेम  गीत  मन  बरसाने  को


            मैं    यौवन    की   रंभा   जैसी
            तुम  कुसुमाकर  रतनार   पिया


हेमंत कुमार "अगम"

भाटापारा  छत्तीसगढ़