Sunday 23 April 2017

कविता

कितना रोई होगी वो छुप छुपकर,
बरसती होगी  यादें बरसात बनकर,
ये बरखा यूं ही नही बरस रही थी,
पूरा मन भीगा होगा बरसात बनकर ।

गिर रही बारिश की बूंदे टपटप कर,
गालों पे बहते होंगे दरिया बनकर,
आंखें लाल लाल हुई होंगी,
बेहाल हुआ होगा उनका रो रो कर।

कड़कती होगी बिजली मन मे रह रह कर,
सूनापन  मायूसी होंगी परछाईंयाँ बनकर,
तन भीगा मन जलता होगा विह्वल होकर,
क्यों हालात बदलते नही मौसम बनकर ।

                     हे मं त

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