उससे मुझको सच मे कोई शिकायत भी नही,
हाँ मगर दिल से मिलूँ अब ये चाहत भी नही।
इस बुरुत पर ताव देने का मतलब क्या हुआ,
गर बचाई जा सके खुद की इज्जत भी नही।
अब अँधेरा है तो इसका गिला भी क्या करें,
ठीक तो अब रौशनी की तबीअत भी नही।
आती हैं आकर चली जाती हैं यूँ ही मगर,
इन घटाओं मे कोई अब इक़ामत भी नही।
जुल्म सहने का हुआ ये भी इक अन्जाम है,
अब नजर आखों में आती बगावत भी नहीं ।
बुरुत-मूँछ
इक़ामत-ठहराव
ग़ज़ल
हेमंत कुमार
भाटापारा छत्तीसगढ़
Ok------
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