दूर क्षितिज पर बजते ढोल,
अनहद बाजे जहाँ अनमोल,
आनंद की वर्षा होती जहाँ,
दिन नही न रात घनघोर।
दूर क्षितिज पर....
श्वेत धवल प्रकाश चाँदनी,
विचारों की शून्य आवृत्ती,
सुख जहाँ स्वार्थ से परे,
सत्ता नही न कोई गठजोड़।
दूर क्षितिज ....
ओम् के स्वर की साधना है,
तंद्रा नही वहाँ आराधना है,
जहाँ कुंडलिनी की जागरण है,
भोग नही जहाँ हैं योगी के बोल।
दूर क्षितिज पर.....।
न वासना न कोई व्यभिचार,
समाधी है सिद्ध हस्थों की,
संभोग की अनंत अनुभूती है,
जहाँ शरीर उर्ध्वगामी अनमोल।
दूर क्षितिज पर बजते ढोल।
रचना
हेमंत कुमार
भाटापारा
17/5/2015
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