Tuesday 19 December 2017

ग़ज़ल

2122/2122/212

रमल मुसद्दस महजूफ

सब वो अर्फ़ा बस हमी इक आम हैं

चोर   वो  हैं   और   हम  बदनाम हैं

अब  पहनते  कीमती  स्वेटर  सभी

बस  हमारे  पास  ही  इक  लाम  हैं

इक गिरिह सुलझी तो फिर इक बँध गई

क्या   हरिक   आफ़त   हमारे   नाम  हैं

हार कर उसने जहाँ को पा लिया

जीत  कर  हम  शह्र में गुमनाम  हैं

इश्क में हमने उतर के देखा तो

यूँ लगा जैसे  ये  शोला  चाम  हैं

यूँ ही तन्हा कब तलक रहते रहें

वास्ते हमारे भी  कोई  जाम हैं..?

जो उफ़नती जा रही है इक नदी

फिर समन्दर से उसे क्या काम है..?

अर्फ़ा -उच्चतम  ,लाम -ऊनी टोपी ,गिरिह-गाँठ,

चाम-खाई

ग़ज़ल

हेमंत कुमार मानिक पुरी

भाटापारा छत्तीसगढ़

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