2122/2122/212
रमल मुसद्दस महजूफ
सब वो अर्फ़ा बस हमी इक आम हैं
चोर वो हैं और हम बदनाम हैं
अब पहनते कीमती स्वेटर सभी
बस हमारे पास ही इक लाम हैं
इक गिरिह सुलझी तो फिर इक बँध गई
क्या हरिक आफ़त हमारे नाम हैं
हार कर उसने जहाँ को पा लिया
जीत कर हम शह्र में गुमनाम हैं
इश्क में हमने उतर के देखा तो
यूँ लगा जैसे ये शोला चाम हैं
यूँ ही तन्हा कब तलक रहते रहें
वास्ते हमारे भी कोई जाम हैं..?
जो उफ़नती जा रही है इक नदी
फिर समन्दर से उसे क्या काम है..?
अर्फ़ा -उच्चतम ,लाम -ऊनी टोपी ,गिरिह-गाँठ,
चाम-खाई
ग़ज़ल
हेमंत कुमार मानिक पुरी
भाटापारा छत्तीसगढ़
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