दोहे.....
गरमी बाहर है बहुत,बिगड़ गया है रूप।
घर की खिड़की से सुबह,कहने आई धूप।।
धू-धू कर जलती धरा,मिले नही अब ठाँव।
है इतनी गरमी बढ़ी , सूरज खोजे छाँव।।
धरती फटने है लगी,बरस रहा है आग।
सड़कें चट चट जल रहीं,सूख गये सब बाग।।
इंद्र देव करने लगे,त्राहिमाम का जाप।
नदी ताल सब उड़ गये,बनकर जैसे भाप।।
तेज-तेज लू भी चले,खेत खार खलिहान।
जीव जन्तु सब हो रहे,गरमी से हलकान।।
हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा छत्तीसगढ़
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