वो होली भी क्या खूब थी,
कंडे लेकर जब जाते थे,
आरती कर होलिका की,
अपना अवगुण जलाते थे ।
अब तो दारू लेकर आते है,
खुद पिते और पिलाते है,
कितनी गंदे करते हम काम,
जो होलिका दहन मे भी नहीं जल पाते है।
घर घर दारू बंटती है,
और हम मजे से पिते है,
मां बहन आ जाए कोई,
गालियां देने से नही चूकते है ।
ये क्या होली हम मनाते हैं,
अपनी मर्यादा सब बिकते है,
एसी होली से तो अच्छा है,
हम होली नही अगर मनाते है ।।
रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़
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