Thursday 31 December 2015

गज़ल

अब धुआँ धुआँ सा ये मंजर लग रहा है,
कहीं तो किसी का घर लपट जल रहा है।

अथाह गहराईयाँ चुप सी बैठी है समन्दर की,
अब लहरों पे ये कौन साआग जल रहा  है।

साये वीरानीयों का बस तमाशा देखते हैं, भरी भीड़ मे नफरतों का आग जल रहा है।

किनारे नदियों के दोनो अब सहमे सहमे हुए हैं,
इधर जाने उधर जाने कौन असर जल रहा है।

कहां चले गये इश्क-ए-रंग-बरसात "हेमंत",
नफरतों के आग से पूरा शहर जल रहा है।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

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