Thursday, 31 December 2015

दैनिकभास्कर

         "उठव सूरज के सुवागत बर ...."

नवा बिहिनिया नवा अंजोर के अगोरा म,
धरती के कन कन सूरूज देव ल ताकत हे।
होत मुंधरहा छिप छिपी बेरा लाली लागत हे,
उठव सूरूज के सुवागत बर पग धरती म डारत हे॥

कांदी कांदी म शीत बरसे हीरा कस चमकत हे,
रात जागे चमगेदरी मन रूख म जा के ओरमत हे।
भंवरा तीतरी मन उड़ उड़ के डार फूल रिझावत हे,
अयीसन लागे जैसन धरती म सरग अमावत हे॥

दउड़ दुउड़ पुरवाही सन सननना गावत हे,
देखव रूखवा मन ल डोला डोला जगावत हे।
चिरइ चुरगुन के बोली कतका निक लागत हे,
कुकरा तो सबले पहिली के बरेंडी नरियावत हे॥

जाग गे हे परिया खार खेत तरिया नरवा,
नंदिया ले कुहरावत अमरीत धार बोहावत हे।
अंगना चंवरा म फूल खिले महर महर महमहावत हे,
नवा रद्दा नवा जिनगी ह  देखव हांथ लमाये बुलावत हे॥

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

हम ये किस तरह की जुस्तजू कर रहे थे
बेवफा की गलीयों मे मोहब्बत ढूंढ रहे थे।

तोड़ दिया जिसने मोहब्बत के अफसाने को
हम उनके लिए इश्क का शहर ढूंढ रहे थे।

तकदीर के फसाने ने इस कदर गुमराह किया
किसी महफिल मे हम ही खुद को ढूंढ रहे थे।

टूटा दिल तो हर तरफ मायूसी पतझड़ की थी
उड़ते सूखे पत्तों पर हम शजर ढूंढ रहे थे।

ये इश्क भी किस तरह की इबादत है "हेमंत"
हम मरते रहे और उनके लिए जिंदगी ढूंढ रहे थे।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़


दोस्ती का हाथ थामकर

दोस्ती का हाथ थामकर हम साथ साथ चलें तो कोई बात बने,
कुछ तुम हमे समझो कुछ  हम तुम्हे समझें तो कोई बात बने ।

आक्षेप आखिरकर कब तलक लगाएँ एक दुजे के दिलों पर,
कुछ तुम मिटाओ रंज कुछ हम मिटाएँ रंज तो कोई बात बने।

हवाएँ भी जहरीली जान पड़ती कश्मीर की धरती पर,
कुछ तुम लाओ अमन कुछ हम फैलाएँ अमन तो कोई बात बने।

आवाम दोनो मुल्कों के दिन रात डर के जीते है अपने ही घर पर,
कुछ तुम जलाओ चिराग कुछ हम जलाएँ चिराग तो कोई बात बने।

कब तलक यहां नफरतों की दर-ए-दीवार बनती रहेगी "हेमंत"
कुछ तुम बनाओ जन्नत कुछ हम बनाएँ जन्नत तो कोई बात बने।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

सारे पाप हम

सारे पाप हम खूब धोकर आए,
जीवन अपना हम पूरा तर आए।
गंगा के छाती मे जितना भी चाहा,
कूड़े करकट गंदगी हंसते छोड़ आए॥

बिसरित कर दी अरबो अस्थियां,
कितनी लाशें जाने हम छोड़ आए।
मां की ममता का सदुपयोग किया,
और ममता को ही मैला कर आए॥

और इतना से भी भरा हमारा नही मन,
क्या क्या करनी हम बेफिक्र कर आए।
लाखों अरबों झिल्लीयां पूजा की छोड़न,
ऐसे ही गहन प्रेम श्रद्धा से छोड़ आए॥

हजारों कलकारखानों की गंदा पानी,
रोज गंगा मे डूबकी लगाकर हंसते है।
गंगा मैया को पावन कह कह कर,
कितने विष गरल हम हर्षित छोड़ आए॥

जननी है हम सबकी पावन गंगा मैया,
मां के लिए चलो आज फर्ज निभाएं,
माता को माता का आदर सम्मान दें,
कुछ मानुष तन मे नेक करम कर आएं॥

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

सफेद पके बाल

सफेद पके बाल,
कमर लाठी पर टिके हुए,
आंखो मे एक मोटा चशमा,
उजड़े हुए घर मे बूढ़ी दादी।
एक टूटा सा खाट,
बिछौना ओढ़ना मटमैला सा,
बच्चे शहर के चकाचौंध मे विलीन,
तेल के चिमनी के भरोसे बूढ़ी दादी।
कोने पर मिट्टी का चूल्हा,
मिट्टी/स्टील के दो चार बर्तन,
कभी मन हुआ तो बूढ़ी हाथों ने पकाया,
ज्यादातर भूखी सोती बूढ़ी दादी।
गंभीर शांत अशांत मुद्रा,
चेहरे की झुर्रियों मे अशांत रेखाएं,
कांपते होठो पर असंख्य,
यादों की धूप छांव पर बूढ़ी दादी।
तरसते आंखो पर है,
अनंत आकाश की गहराईयां,
उछलकर आंखो पर आते जाते ,
नीर के फैलाव पर बूढ़ी दादी।
सांसे जैसे रह रहकर उखड़ती है,
पर बूढ़ी हाड़ मांस जीने की जिद पर है,
पैरो की आहट सुन कान टिड़ आते है,
शायद अब भी राह तकती है बूढ़ी दादी।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

दस शीश वाले रावण

दस शीश वाले दशानन रावण,
राम के जमाने की पुराने रावण,
मार दिया राम ने तीर रावण,
अबके जमाने की हजार शीश के रावण।
मारने की जिद पे अटल हैं ,हम रावण,
शीश बढ़ाने पर अटल है रावण,
घास फूस की तरह अब के रावण,
अब घांस फूस की तरह बढ़ते रावण।
हर इंसान मे बसता दानव इक रावण,
रोज नया पैदा होते कितने रावण,
अगले विजयादशमी तक धरती पर,
जाने कितने कितने पैदा होंगे रावण।
समर्पण चाहा नारी का उस रावण ने,
अब के तो रावण हैं बलत्कारी रावण,
ये तो हैं अब के जमाने के रावण,
घर पर भी लाज हरण करते यह रावण।
जाते है लोग मारने कितने रावण,
या यूं कहें रावण ही मारने जाता रावण,
राम निर्लोप हर इंसान मे है रावण,
विचित्र विडंबना फिर मारते है रावण।
देख अट्टहास करती है घोर रावण,
राम तुम हार रहे मै जीत रहा रावण,
त्रेता मे तुम जीत गये थे राम, रावण,
कलयुग मे तो मै बस रावण रावण।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

उतर रही है आसमान से खुशबूएं कोना कोना,
मंदीरो मस्जिदों मे परिंदों ने घर बनाया कोना कोना।

हमारे ही घर क्यों नही बनते इस रवायत पर,
टूटते हैं मंदिरों मस्जिदों पर घर का कोना कोना

मंदीर मस्जिद के रखवाले आखिर क्यों दंगा फसाद,
जब एक ही गुलाब से महकता है घर का कोना कोना।

खून चूस लेती है हैवानियत इंसानियत के रगो से,
क्या जवाब दोगे जब बिखर रही लाशें कोना कोना।

नफरतें ही इंसानियत को खाख खाख कर रही है "हेमंत"
कब तक उजाले छटपटाते रंहेंगे घर पर कोना कोना।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

बसरते हैं ख्वाब रह रहकर मां के झोफड़ों पर,
छत से पानी गिरकर भीगता है फांकेमस्त झोफड़ों पर।

महलों पे चकाचौंध और बरसात की खुशबूएं तमाम है,
बिजलियाँ जब जब भी गिरी गिरी है मेरी मां के झोफड़ों पर।

टपकती है छप्पर से बारिश जब भी गरिबी के सिरहाने,
मां गोदी लिए रात भर  अलपक जागती रही झोफड़ों पर।

मां की हर किस्से मे जाने हमेशा शहजादा ही बना हूं,
और तकदीर गरीबी मे सोई मै चारपाई पर लेटा था झोफडों पर।

टूट जाती होगी मां जब मेरे बदन पे कपड़े तक नही होते,
मां कैसे समझाती होगी अपने आप को बेमुरव्वत  झोफड़ों पर।

पत्थर के नीव पर पत्थर के घर और पत्थर दिल लोग रहते है,
शुक्र है इक ममता मां की बसरी है हमारे  गरीबों के झोफड़ों पर ।

हंसते हैं हम पर उंचे खिड़कियों से जगमगाती रोशनियाँ,
मां दिए फूंककर भी गज़ब रोशनी करती रही  है झोफड़ों पर ।

इक तु ही तो है मां जिसके वजूद मे फूल-ए-गुलशन बनता गया  "हेमंत"
वरना कहां खुशबूओं का नाता होता तंगहाली के झोफड़ों पर ।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

दैनिकभास्कर

लिपे पोते जम्मो घर कुरिया सुघ्घर,
सबो पारा दिखे हावे उज्जर उज्जर।
अंधियारी हरे लअंजोरी तिहार आगे,
संगवारी हो देखव  देवारी तिहार आगे ॥

संगवारी हो देखव.....

धनतेरस के धनवंतरी दाई ल मनाबो,
नरक चउदस के नरकासुर ल हरबो।
लछमी पुजा के लछमी दाई ल मनाबो,
सुरसुरी फटाका दिया के तिहार आगे॥

संगवारी हो देखव......

जम्मो खेत खार घुरूवा अउ कोठार,
बारि बखरी अंगना परछी घर दुवार।
तुलसी चौरा महमाई चौरा जगमग दिखे,
जम्मो जघा बरत दिया के तिहार आगे ॥

संगवारी हो देखव...........

गउ पुजा होही गउ माता सोहयी बंधाहि,
घर घर चुरही जिमी कांदा के साग।
मुंधरहा गौरी गौरा के बिहाव ल करबो,
अउ संझाकुन गोवरधन तिहार आगे॥

संगवारी हो देखव.......

भाई दूज बहिनी के मया के जुग चिनहारी,
बहिनी भाई ल पूजा कर टिका लगाही,
दुधखिचरी खवाके बढ़िया उपहार पाहि,
भाई बहिनी के अमोल मया तिहार आगे॥

संगवारी हो देखव......

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

दिल -ए -फ़साना हमारा दिखाई नही देता
हम रोयें तो रोना हमारा दिखाई नही देता

जिंदगी यहां जाने किस रफ़्तार से गुजरती है
हम गुज़रें तो चलना हमारा दिखाई नही देता

हमने मोहब्बत किया की अफ़साना हमारा भी हो
इश्क-ए-ईमारत क्यूं हमारा दिखाई नही देता

पांव जिनके पड़तें हो फूलों के मखमली सेज पर
कांटों पर लहू पांव हमारा दिखाई नही देता

किस जतन से अब जिंदगी बसर करे "हेमंत"
जिंदगी को जिंदगी हमारा दिखाई नही देता

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार -भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

जिंदा तो हैं हम लाशो के हुक्मरान  बनकर
हम ताबूत से निकले भी तो हुक्मरान बनकर

ये फ़जाहत ये रवायत इस कदर चल पड़ी है
हम अगर डूबे है वो निकले हैं नूर-ए -जहान बनकर

सियासत के मयखाने मे डूबें है बेफिक्र रसूकदार
जब हम निकले तो बने हिन्दू या मुसलमान बनकर

किस कदर सम्हाले  अपने शकून -ए - ईबादत ये मिट्टी
जब हम लूट रहे हैं किसी महफिल मे बदनाम  बनकर

खेल खेल मे किसी ने हमारी मादरे-ए-कौमियत छिन ली
हम गज़ब घूमते है मज़नू बने कोई लैला बनकर

अब तो इश्क -ए-फ़साना बस मेरी गलियों मे है "हेमंत"
अब मै न जियूंगा न मुसलमान बनकर न हिन्दू बनकर

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार -भाटापारा
छत्तीसगढ़

हां मै वही पिता हूं

हां मै वही पिता हूं
जो कठोर है सख्त है
जो छाती पर अनंत अनंत
संवेदनाओं को समेटे है

हां मै वही पिता हू.....

जहां आंसू नही है
पर आंसूओं का बर्फ है
कर्तव्य मुझे रोने नही देता
चिंताएं पिघलने नही देती है

हां मै वही पिता हूं....

तपन की उष्णता पर दम भरकर
कांधा बोझ लिए चलता है
कभी दफ्तर कभी सड़कों पर
आपा धापी भागते कदम है

हां मै वही पिता हूं......

बेटा पति पापा मुझमे सब है
और उनमे ही मेरा घर है
इस लिए तत्पर हूं आकुल हूं
यह ध्येय ही मुझे गंभीर बनाता है

हां मै वही पिता हूं........

कभी सब्जी की थैला पकड़े
कभी खिलौने या कपड़े लिए
राशन वाले की घिड़कियां सुनते
थका पर आंखो मे चमक बिखरा है

हां मै वही पिता हूं.......

देर सांझ पसीने मे कड़कर
दो रोटी का इंतजाम करता हूं
जब ही घर लौटता हूं
तब कहीं घर मे खुशीयाँ उतरती है

हां मै वही पिता हूं......

फटे जूते मेरी पहचान बनते हैं
बिना स्त्री कमीज मुझ पर फबता है
धूल सड़कों का तिलक है मेरा
संतुष्टि उन आंखो का जैसे प्रसाद है

हां मै वही पिता हूं.........

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

उजड़कर चमन से बहारें चली गयी
बुलबुल चले गए मैना चली गयी ।

छोटा सा आशियां मे ये कैसा मंजर है
वीरानियों के दरमयां आबादियां चली गयी।

पड़े जमीन पे जो दर्रा तो पांव दुखने लगे
तमाम नस्लों की तमाम फस्लें चली गयी।

भीगे जो दामन लहू के हाथ से लथपथ
दहशत-ए-गर्द-ए-मालिंद असूलें चली गयी।

भभकते रहे दर-ए-दिवार धू धू कर जब
इंसानियत जला तो फरिश्तों की भीड़ चली गयी।

बातें बड़ी बड़ी करके कुछ न हासिल हुआ "हेमंत"
तूफान आया तो साथ पतवारें भी चली गयी।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

ये घर अब  किसी का अफसाना सा लगता है,
अब ये दर-ए -दिवार यूं पुराना सा लगता है।

वो घूटर घू कबूतरों के अब सुनाई नही देता,
ये घर अब पुराना सा अन्जाना सा लगता है।

सूखे क्यारियाँ दहलीज धूल से मैला हुआ है,
ये घर कुछ यूं बरसों बरस पुराना लगता है।

सुना था यहां मोहब्बत की परीयां उतरती थी,
ये घर अब मोहब्बत की तन्हाइयां लगता है।

क्या यह किसी के नजरों का गुनाह है "हेमंत"
ये घर अब भी मोहब्बत के तबाहियों सा बदरंग लगता है।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

अब धुआँ धुआँ सा ये मंजर लग रहा है,
कहीं तो किसी का घर लपट जल रहा है।

अथाह गहराईयाँ चुप सी बैठी है समन्दर की,
अब लहरों पे ये कौन साआग जल रहा  है।

साये वीरानीयों का बस तमाशा देखते हैं, भरी भीड़ मे नफरतों का आग जल रहा है।

किनारे नदियों के दोनो अब सहमे सहमे हुए हैं,
इधर जाने उधर जाने कौन असर जल रहा है।

कहां चले गये इश्क-ए-रंग-बरसात "हेमंत",
नफरतों के आग से पूरा शहर जल रहा है।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

जीने के हजार

जीने के हजार तरीके होते हैं,
कोई मरकर भी जींदा होते हैं।
वो घूप्प अंधियारा के सीने पर,
जुगनुओं सा उजाला होते हैं॥

कुछ दौलत की खातिर जीते हैं,
कुछ सोहरत की खातिर जीते है।
जीना तो जब असल जीना होता है,
जो गरीबों के हिमायत होते हैं॥

कुछ महलों मे आंखें मूंदे होते हैं,
कुछ महलों के ईंटे चुनते होते है।
न हासिल करके जो खुश होते है,
हां एसे तो कुछ साहिब होते हैं॥

बैठ मजे से कुछ खाते होते हैं,
कुछ दाने दाने को मोहताज होते है।
भूखा रहकर जो सबको खिलाए,
एसे ही मानवता के पहचान होते हैं॥

मेहनत ईमानदारी के जो दीपक हैं,
निष्कपट भाव से जो जीवन जीते है।
सेवा भाव धरम हो जाये जिनका,
बिना तेल बाती एसे दीपक जलते होते है॥

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

बाहों मे जिनके रातभर  इक सुकून होती है,
और कोई नही केवल इक वो मां होती है।

जब चोट लगे हमे तो दर्द उनको आता है,
एसे  हर अफसानो की तरन्नुम वो मां होती है।

जरा सा हिले बिस्तर  कि वो सहम जाती है,
है रोज हर रात तारों के सफर पर वो मां होती है।

मां के तराना और खिलौने जो चांद से बने हैं,
गुड्डे गुड़ियों के कपड़े जो सीती वो मां होती है।

आजकल  बहुत बड़ा हो चला है तु "हेमंत"
आज भी तुझे जो बच्चा समझे वो मां होती है।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

गुरू घासी दास

अंधरा के तुमन आंखी बनेव,
भैरा के तुम फरके कान बनेव।
जोजवा बर दिया गियान बनेव,
बाबा सही रद्दा के पहिचान बनेव॥

जात पात ल लतियायेव तुमन,
छुआ छूत बर बड़ काल बनेव।
सही रद्दा देखाय बर घासीदास बबा,
तुमन दुनिया के रेंगहार बनेव॥

भाई भाई के सही अरथ ल बतायेव,
मानव धरम का होहि समझायेव।
सबो जाति के पीरा ल समझेव,
सत धरम के सही पहिचान बतायेव॥

दारू गांजा के अवगुण समझायेव,
सही करम के पहिचान ल बतायेव।
मास भकछन के घोर बिरोध करेव,
सब जीव बर तुमन मया बगरायेव॥

समाज ल एक डोर म बांधे बर,
सही गियान हमन ल समझायेव।
बिखरत समाज के बोहेव बोझा,
सत मारग ल बाबा तुमन समझायेव॥

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

इस रात की सुबह नही

इस रात की सुबह नही है
ले दे के दिन उतरा है
रात बिलबिला तिलमिला रही है
मेरे स्वप्नों के साथ
मुझे सोने नही देता
जैसे किसी ने दुश्मनी कर लिया है
दिन की अवशेष उत्तेजना
रात के आलस्य के बीच
जहां मै चैन पाता था परिपूर्ण
तकियों के करवट पर निढाल है
तरंगों की एक आवृत्ती
इस छोर से उस छोर तक
कैसे ताना बाना बुनती आ रही है
और मै निस्तेज सा इक ओर
अधखुली आंखों से नीहार रहा हूं
जहां धुंधले धुंधले से चित्र है
अधसुलझा अधसुनी  कर्कश बातें
सीने मे धुक धुक की बेखौफ बातें
और फिर अधखुले आंखें
भौं फाड़कर देखने लगती है
टकटकी के बीच अलपक तरंगें हैं
कुछ अवसाद भी फूले हैं मन पर
मै हूं नही हूं या फिर कोई नही है
अधमरा सा वीदीर्ण लेटा हूं बिस्तर पर
इस रात की सुबह नही है.....॥.

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

इस तरह तो कोई प्यार नही करता
मूंद कर आंखे कोई चार नही करता

ये दुनिया चंद मतलबीयों  के हवाले है
सकल बिना कोई सीरत नही करता

फरिश्तों के बगल बैठे हैं तमाम मतलबी
बेवजह भी  तो कोई सलाम नही करता

के सड़कों पर होते हैं बदन के लालची
जो हुस्न मिला तो कोई मना नही करता

ये जिंदगी की असल फलसफा है"हेमंत"
बे वजह तो यहां कोई प्यार नही करता।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

लो अब गुनहगार भी बा इज्ज़त छुट गया,
कांक्रीट के सड़क पर फिर इक दाग रह गया।

इमानदारी किसी गरीब के घर जा दुबकी,
यहां बस पैसे वालों का  यह खेल रह गया।

मोहब्बत को जो लूटते हैं बेईज्जत करके,
उनके कदमो पर ये सारा जहान रह गया।

अजब ये सितम है गरीबी के सूखे पत्तल पर,
गरीबी के घर पर बस बहता खून रह गया।

ये दौर अब  कब तलक चलता रहेगा "हेमंत"
खुदा तेरे दरबार मे अब हरा बक्शीश रह गया।

हेमंतकुमार मानिकपुरी
छत्तीसगढ़

पत्थरों पर मन की बात

मै क्यूँ रख देता हूं
पत्थरों पर मन की बात
हिलते हैं न पीघलतें हैं
पर संवेदनाएं आच्छादित है
पत्थर की नही मेरी अपनी
अपनी पीड़ा से..
कुछ तो फर्क पड़ेगा उनपर
टप टप बरसते आंसू भी
उन्हे जगा नही पाते
फिर भी पत्थर पर आंख गड़ी है
सोचता हूं उदास मुद्रा से
अपने कोमल हाथो  से
उन्हें तनिक भी हिला पाऊं
संवेदनाओं के गहरे सागर पर
उन्हें फेंक आता हूं
डूब तो जाता है गहराइयों पर
पर पत्थर ही रह रह जाता है
मेरी तमाम कोशिशें विफल है
इक अवसाद रह जाता है
मेरे मन के किसी कोने पर
मैं क्यों रख देता हूं
पत्थरों पर मन की बात.......

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

हिंद बढ़ता चले

जब तलक सांस चले
हिन्द बढ़ता चले.......

गरीबों के साथ साथ
लाचारों के साथ साथ
भाईचारा के साथ साथ
हिन्द बढ़ता चले.......

कानून का भरोसा मिले
संविधान पर भरोसा बढ़े
इंसाफ के साथ साथ
हिन्द बढ़ता चले........

अंबेडकर के राहों पर
धर्म पर सद्भाव बने
जब सामाजिक तरंग चले
हिन्द बढ़ता चले.........

सहिष्णु असहिष्णु छोड़ दें
हिन्दू मुस्लिम सिख्ख ईसाई
भारती बन चलता चलें
हिन्द बढ़ता चले..........

पहाड़ से मैदान तक
शहरों से गांव तक
जम्मू से कन्याकुमारी चले
हिन्द बढ़ता चले........

घर घर मे तिरंगा हो
हर घर देशभक्ति चले
वतन के लिए कुर्बानी चले
हिन्द बढ़ता चले.........

हमारी भी एक रूतबा हो
जवानो मे जब जस्बा चले
बोझ जब कांधा पर चले
हिन्द बढ़ता चले.........

अमन शांति जब प्यारा हो
बारूदों की जरूरत न चले
हर जान की हिफाजत चले
हिन्द बढ़ता चले...........

राजनीति साफ साफ चले
समाज सेवा पर काम जले
विकास का मुद्दा चले
जब तलक सांस चले
हिन्द बढ़ता चले........

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

गज़ल

आखिर हम क्यूं बिखरने  लगे हैं
चौखट पर दरवाजा भुलने लगे हैं

खुमारी यह किस तरह की है
गैरों को हम अपना कहने लगे हैं

भुला भी शाम तक घर लौट आता है
हम राह पर बेखबर चलने लगे हैं

काटने को मजबूर है अब गुलाब भी
आज भाई भाई पर हम वार करने लगे हैं

जागा है हर जगह अब हैवानियत "हेमंत"
दामन वफाओं का दागदार करने लगे हैं  ।

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़

पथराई आंखे

आंखे पथराई
बदन झुर्रियों के भरोसे
अतीत पर लिपटे
पूरी बरसात और ठंड
गर्मियों मे कंही अवनत के सहारे
पर क्षुधा शांत नही दिखती
लाख जतन
और रोटी कोसों दुर
किसी के सहारे या
भगवान के सम्मुख
फिर भी छलती भाग्य
सड़को पर बिना आंख के
पैर पकड़ते
या भगवान के नाम पर
जद्दोजहद करते
बिना आंख जिंदगी
सूर पर थिरकते वाद्य यंत्र
एक रूपया की बख्शीश
मरे हुए राजा की गुणगान
शानोशौकत पर मुजरा के समतुल्य
भविष्य की उम्मीदें
पर मंदिरों मजारों पर टिके हुए
उनकी तंगहाली की मजारें
मुस्लिम पर मदीने की बात
हिन्दू पर राम की बात
मजबूर है कोई मुफ्लिसी
तवे की रोटी के उपर
हां मै और तुम मजे से खाते हैं
कोई दोनो के दरमियाँ  ठाठ फोड़ते है
भूखे तो धर्म भूलते है
सबसे बड़ा ईमान
बेईमानी के बखश्शीश पर बुलंद है
पर बाबा ये क्या है
तम्बूरा पर धुन गा के
क्यों मरे हुए को जिला रहें हैं

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
छत्तीसगढ़

असल भारत की तस्वीर

तमाम वादों के खिलाफ
असल भारत की तस्वीर
पूस के ठंड के बीच
बहुत मासूमों के लिए
भागदौड़ की बेदर्द जिंदगी
कंबल गद्दे और रजाई
कहां नसीब होता है
बदन पर कुछ पुराने कपड़े
ठीठूरती सुबह पर
जागकर केवल क्षुधा के लिए
लड़ते और मरते
गरीबी के मासूम रखवाले
ये बदनसीब ही नही
घर के तमाम बड़े बूढ़े
इसी जद्दोजहद पर
इनके लिए भाग्य की कठोरता
हिमालय के बर्फ जैसे
जो पिघलता ही नही
सरकारी योजनायें
इनके गरीबी का
बालबांका तक नही करती
कोंख ने जनम दिया है तो
बस केवल जीने की ललक
यहां भी नियम कानून कायदें है
सबकी लक्षमण रेखाएं हैं
पर पार ही करना पड़ता है
कभी नाली पर पैर रखकर
कभी कुड़े पर छोड़न उठाकर
कभी शराब की खाली बोतलें
उठाते और नसीब पक्की
केवल और यह केवल
भूख के लिए दिमागी तरकीबें है
साक्षरता कोई दानव जैसा है
जो पेट के बीच घेरबंदी कर देता है
इनके मिट्टी के घरौंदे को
जहां कम से कम छत तो है
डहाने की कोशिश करता है
सरकारी तमाम योजनायें गड्ढे पर
हां यह क्षुधा की आग है
जहां कुछ सुनाई दिखाई नही देता......

रचना
हेमंतकुमार मानिकपुरी
भाटापारा
जिला
बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़