Saturday, 23 November 2019

जलाना पड़ता है खुद को जानता हूँ


( 1222 1222 2122 )

मेरे   बारे   में  मैं  जब  भी सोचता हूँ

मैं  अपना  ही  पता  खुद से पूछता हूँ

किसी पे मैं  अगर ग़ुस्सा  भी करूँ तो

यक़ीनन  अपना  ही बिस्तर नोचता हूँ

मेरे  पीछे  अगर  आओ  तो  पता  हो

कि  मंजिल  मैं   नही  टेढ़ा  रास्ता  हूँ

बड़े   लोगों   के  होंगे  नख़रे   हजारों

ग़रीबी   मैं   बिछाता   हूँ   ओढ़ता  हूँ

उजाले  यूँ  नही  घर  आते  हैं  साहब

जलाना  पड़ता  है खुद को जानता हूँ

ग़ज़ल
हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा छत्तीसगढ़

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