Saturday 21 January 2017

ग़ज़ल

212/212/212/212

भीड़ मे मै अकेला ही चलता रहा,

हम सफर मेरा कोई ना साया रहा।

मेरे अपने कभी साथ थे ही नही,

उम्र भर अपने घर मे तन्हा रहा।

जा के देखा है बाजार मे मैने भी,

पैसों के आगे ईमान बिकता रहा।

साथ देने का वादा किया उसने था,

और वो दुश्मनी ही निभाता रहा।

कैसी ये उलझनो का बुरा दौर था,

पानी थी सामने और प्यासा रहा।

ग़ज़ल
हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा



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