Friday 20 January 2017

ग़ज़ल

122/122/122/122

मै खुद से बहुत दूर रहने लगा हूँ,
मै हर रोज सूरज सा ढलने लगा हूँ।

कभी था बसेरा मेरा भी गुलों मे,
मै पतझड़ के पत्तों सा झड़ने लगा हूँ।

दिवारें बना दी गई मेरे घर मे,
मै कैदी के जैसा ही रहने लगा हूँ।

ये मेरा शहर था नही लगता है अब,
मै फिर गाँव का सख्स लगने लगा हूँ।

सफर खत्म होने लगा है मेरा हर,
मै सागर के लहरों मे मिलने लगा हूँ।

ग़ज़ल

हेमन्त कुमार मानिकपुरी

भाटापारा








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