Saturday 18 February 2017

ग़ज़ल

२१२२/२१२२/२१२२

राख शोलों का लपट गर माँगता है,

फिर तबाही का वो मन्जर माँगता है।

मै पिला देता उसे पानी मगर वह,

खून का पूरा समन्दर माँगता है।

उम्र भर जिसको नचाया ही गया था,

रूह वो अब भी कलन्दर माँगता है।

खेल है अब जिन्दगी से खेलना भी,

अब जिसे देखो वो खन्ज़र माँगता है।

जो नुमाईंदे बने थे आबरू के,

वो हवस का गंदा बिस्तर माँगता है।

ग़ज़ल

हेमंत कुमार मानिपुरी

भाटापारा छत्तीसगढ.

8871805078







No comments:

Post a Comment