२१२२/२१२२/२१२
है सफ़र तन्हा अकेला जाना है,
अपनी तो बस मौत से याराना है।
अक्श हर इक छूट जायेंगे यहां,
मिट्टी हैं हम मिट्टी मे मिल जाना हैं।
रोने की आदत छुपाकर रखता हूं,
मुझ में भी चोरों का इक तहखा़ना है।
कौन मन्दिर कौन मस्जिद है भला,
बेहतर इससे कसाई खाना है।
इस शहर मे अब जिंदा कोई नही,
बस जिंदा लाशों का आना-जाना है।
ग़ज़ल
हेमंत कुमार मानिकपुरी
भाटापारा
छत्तीसगढ़
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