१२२२/१२२२/१२२२
चलो अब चांद को घर पे बुलाते हैं,
कली सी बेटियों से घर सजाते हैं।
बहू बनकर बहुत जल मर गई है वो,
बहू को बेटियों सा घर दिलाते है।
हरिक आंगन गुलाबों सा महक जाये,
जरा इन बेटियों को हम हँसाते हैं।
बेटी है तो उसे बेटों सा ही पालें,
उन्हे भी आसमॉ तक चल उड़ाते हैं।
बहुत रोती है हर वो रात तकिए पे,
किसी दिन ख्वा़ब मे परियां दिखाते हैं।
मिले पल पल उसे ईज्ज़त का साया,
हवस का आंखो से पर्दा हटाते हैं।
ग़ज़ल
हेमन्त कुमार मानिक पुरी
भाटापारा
छत्तीसगढ़
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