अंतिम पड़ाव
जिन चीजों से लगाव था
पहले कभी
जिसे पाने के लिए
मन
बावरा हुआ रहता था
आज वह सब चीजें
अचानक
निर्थक सी
जान पड़ने लगीं है
मन अब
संतुलन के बाहर
अचेतन अवस्था में
भ्रमण करने लगा है
चुपके-चुपके
उम्र के
अंकों का गणित
बढ़ते क्रम में
शून्य की ओर
बढ़ने लगा है
शिथिलता
शरीर का अनिवार्य तत्व
हो गया है
मस्तिष्क के
अंतरिक्ष में
एक ब्लैक होल
बन रहा है
जो स्मृतियों को
आहिस्ता-आहिस्ता निगल रहा है
शायद उसी का
यह परिणाम है
अब मैं
दुनिया के संग-संग
खुद को भी
भूलने लगा हूं...
हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़
'यह कविता मौलिक व अप्रकाशित है'
(उम्र के अंतिम पड़ाव में दादा जी के विचारों का काव्य रूपांतरण)
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