Thursday, 4 September 2025

अंतिम पड़ाव

अंतिम पड़ाव

जिन चीजों से लगाव था
पहले कभी
जिसे पाने के लिए
मन
बावरा हुआ रहता था
आज वह सब चीजें
अचानक
निर्थक सी 
जान पड़ने लगीं है
मन अब 
संतुलन के बाहर
अचेतन अवस्था में
भ्रमण करने लगा है
चुपके-चुपके 
उम्र के
अंकों का गणित 
बढ़ते क्रम में
शून्य की ओर
बढ़ने लगा है
शिथिलता 
शरीर का अनिवार्य तत्व
हो गया है
मस्तिष्क के
अंतरिक्ष में
एक ब्लैक होल 
बन रहा है
जो स्मृतियों को
आहिस्ता-आहिस्ता निगल रहा है
शायद उसी का 
यह परिणाम है
अब मैं
दुनिया के संग-संग
खुद को भी
भूलने लगा हूं...

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 
'यह कविता मौलिक व अप्रकाशित है'

(उम्र के अंतिम पड़ाव में दादा जी के विचारों का काव्य रूपांतरण)

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