ज़िन्दगी जलाएँ है ज़िन्दगी को पाने में
गम को छोड़ आये हैं हम शराबख़ाने में
आजकल वो हमसे ही दूर दूर रहते हैं
ज़िन्दगी खपा दी हमने जिन्हे बनाने में
यार कब की ये दुनिया जान ले गई होती
मर्द हैं तो ज़िन्दा हैं अब तलक जमाने में
राख ये कहीं फिर से आग तो न बन जाये
लोग कुछ लगे हैं फिर राख को जलाने में
आज हमसे रूठे हैं तो हैं देखना इक दिन
ज़िक्र मेरा आएगा उनके हर फ़साने में
ग़ज़ल
हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा
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