Friday 7 June 2019

धूप छाँव खोजता है

दो पहरी की गर्मी से
थककर झुलस कर
धूप घर के आँगन में
परदे की छाँव में बैठ गया
पसीने से तर्र
न साफा न पगड़ी
गर्म हवाओं का चक्रवात
और कहीं नही ठहरने की जगह
बेचारा करे भी तो क्या
न जंगल है न झाड़ियाँ
तालाब नदियाँ झरने
सब जगह देख लिया
कहीं भी पानी का अता पता नही
होंठ सूख चुके है
तन आग का गोला हो रहा था
जैसे अग्नि-पथ से गुजर रहा हो
सोच रहा था शाम तक मुझे
सूर्य में विलीन हो जाना है
और फिर रात भर तपना हैं
हर गर्मियों में मुझे ठंडक मिल जाती थी
अब ये धरती कैसी हो गई है
पहले तो एसा नही थी
कि मुझे छाँव भी खोजना पड़ा हो  ???

रचना
हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा
रचना श्रेणी-अतुकांत

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