Thursday 27 June 2024

ज्ञान परख दोहे

1
मीठे का सेवन सदा,रहा विषय का भोग।
नीम लगे कड़वा बहुत,पर वह साधे रोग।।

2
तोता  इस  संसार  में ,बिरला समझे श्वाँस।
पिंजरे भर उड़ता फिरे,बाँध मोह का फाँस।।

3
मन जुगनू यह सोचता,मुझमें अतुल प्रकाश।
दादुर को  जैसे लगे , कूप  सकल आकाश।।

4
जंगल सारे काटकर,खत्म किये सब ठाँव।
लिये कुठारी आप ही,काटे अपने पाँव।।

5
मन में विष की कोठरी,मुख में लिए मिठास।
एसे जन की दोसती ,  दमड़ी  बचे  न  मास।।

6
सारे  अपने पाप को  , धोने  निकला  श्वान।
भौं-भौं में रसता कटा , हटा तिरथ से ध्यान।।

7
मन में बातें और है,मुख में बातें और।
एसे लोगों को कभी,बाँधें ना सिर मौर।।

8
 तोता रटना छोड़ दे,दे मौलिक पर ध्यान।
वर्ना  संकट  में   धरा, रह  जाएगा  ज्ञान।।

9
कोयल जैसी निर्दयी, और भला है कौन।
कागा के घर छोड़ती,अपनी संतति मौन।।

10
चिपके जिस पर चूस ले,मर्यादा धन प्रान।
कामी क्रोधी लालची , ये  हैं जोंक समान।।

11
सुख   सारे  जो बाँट दे,दुख  झेले खुद आप।
गलता  ढलता  लौह  सा , होते  हैं  ये   बाप।।

12
पालें कुत्ता बे-हिचक,पर रख इतना ध्यान।
आगे   ना  माँ-बाप से , हो जाये वह श्वान।।

13
सब कुछ कड़वा नीम का,पर गुण का भंडार।
जैसै   बापू    डाँट  कर  , करे  पूत  से प्यार।।

14
शांत  भाव  अरु  चित्त से,ज्ञानी करै विचार।
जैसे   पीछे   बाघ के  ,  आवै चतुर सियार।।

15
सोवत   जागत चित्त को , डसता साहूकार।
सोंच समझ कर माँगना, कोई कभी उधार।।

16
रंग   बदलने  में  कहाँ , करता  है  परहेज।
गिरगिट से भी आदमी,निकल गया है तेज।।

17
पानी  जब  बहता रहा ,ना समझा कुछ मोल।
पानी-पानी   हो गया  , तब समझा अनमोल।।

18

सत्य सत्य कहता फिरे, किया कभी है  गौर।
सतयुग  में भी सत्य का, नही  रहा था  ठौर।।

19
दिल से दिल का जोड़ना,एक बड़ा व्यापार।
तौल नफा नुकसान को,करते हैं अब प्यार।।

20
साधू  नेता   आमजन ,देख  लार  टपकाय।
रुपया   ऐसी   सुंदरी  ,चाहँय सभी बिहाय।।

21
सोच सोच का फर्क है,चीज वही है एक।
मोहन को अच्छा  लगे,सोहन मारे फेंक।।

22
जेवन  पानी  पवन  से, जीवित रहै शरीर।
आतम जीमै ज्ञान जब ,मिटै जनम जंजीर।।
23
हद से ज्यादा प्रेम भी,होवय जहर समान।
मादा बिच्छू प्रेम कर,लेवय नर का जान।।
24,
कुटिल जन और संत को ,समझें धरकर धीर।
दोनो   का  स्वभाव अति  , होवत  है  गंभीर।।

25
त्याग सभी आलस्य को,लेकर प्रभु का नाम।
सोये-सोये  से  नही  ,  बनता   है कुछ काम।।

26
लालच के आगोश में,कीट समझ ना पाय।
घटपर्णी  के  कुंड में, डूब   मरै  सड़ जाय।।

27
मा-बापू की सीख  को,धारै जो संतान।
कष्ट  उसे छूवै  नही,पावै अति सम्मान।।
28

विद्या   रूपी   कुंड में , उतरै   जो   इंसान।
घड़ा भरै निज ज्ञान का,पीवै सकल जहान।।

29
ज्ञान  मिले  से  दंभ का,होता है अवतार।
बिन गुरुवर के ज्ञान भी,होते खरपतवार।।


30
काँव-काँव कागा करे,होवै जन परेशान
शांत मूक गंभीर तो,होवय संत सुजान।

31
सत्य अहिंसा छोड़कर,करे कुसंगति पान।
मरा  हुआ  है  आदमी,या  है  वह  शैतान।।


33
पात्र  कृपा  का  ना बनें ,कृपा भीख के तुल्य।
परिश्रम और दिमाग से, बढता खुद का मूल्य।।

34
पुण्य काम कर   दीजिए,जीवन को सद्अर्थ।
दान   कीजिए  ज्ञान का , यदि हैं आप समर्थ।।

35

जिसको कुछ आता नही,''करते काम  तमाम''।
पर  जो  जहाँ   समर्थ  है,नेक करे सब काम।।

36
पूरी   दुनिया  देख  के ,जान  गया  इक बात।
पैसा  है  तो   संग  सब , वरना   मारे   लात।। 

37

कभी  क्रोध का वेग भी , देवै  अतुल अमोद।
जैसे  गरजै  और  फिर  ,वर्षा   करै   पयोद।।

38
वर्षा  से  तन  भीगता , मन  भीगै सँग मीत।
जो भीगै  गुरुनाम सँग,भीगै  तन-मन प्रीत।।
39

मुख में जिनके राम है,मन में आशाराम।
ऐसे   धोखे  बाज से ,राम  बचाये  राम।।

40
बीमारी   से  तन    गले ,  और  जाय सम्मान।
जिस घर शौचालय नही,वो घर नरक समान।।
41
जो  रामों  का  राम  है  , जो  धामों का धाम ।
है  बस  केवल  एक ही ,'माँ' है उसका  नाम।।
42
तन पर नही गुमान कर,होगा इक दिन राख।
करनी संग सुधार ले  , अपनी कड़वी  भाख।।
43
तंत्र मंत्र का चल रहा,यहाँ खेल पे खेल।
अनपढ़ बुद्धी ठीक है,पढ़े लिखे भी फेल।।
44
आफत ही तो आ गई,खूब हुई बरसात।
रोती  रोती   झोपड़ी  , जागी  पूरी रात।।
45
जले  प्रेम सौहार्द्र का  , दीपक जहाँ अनेक।
हिन्दू-मुस्लिम से अलग,चाँद  बनाओ एक।।

46
काम-महल   की  देहरी  ,जैसे  एक सराय।
रुकना चाहे रात सब,दिन मुख नही दिखाय।।
47
एक   दूजे को मारकर , खाते  सारे  जीव।
शाकाहारी भोज्य भी,तो क्या नही सजीव।।
48
रोने   से   होगा    नही  ,कठिनाई  का अंत।
सोंच समझ कर काम में ,लग जाओ हेमंत।।
49
कोयल  मीठी  बोल के ,  करे प्रेम आघात।
कड़वा पर सच बोल के , कागा खाये लात।।

50
प्रेम नही जिस घर मिले,मिले नही सम्मान।।
ऐसे  घर    ना जाइये, वो घर नरक समान।


हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़