Saturday, 28 June 2025

मुझे छोड़ दो


शब्द मुझसे आकर
कहता है
मुझे कविताओं में
न ढालो
मुझे गद्य में 
न बसाओ
मुझे व्याकरण में
न बांधों
बंधकर रहना
मुझे अटपटा सा
लगता है
मुझे छोड़ दो
पलास के फूलों पर
पीपल के पत्तों पर
झुलने दो फुनगियों पर
मुझे छोड़ दो
पुरवाई के संग
उसकी तरंगों में
मुझे बहने दो
मुझे छोड़ दो
चिड़ियों के बीच
उसके कलरव में घुलकर
मुझे चहकने  दो
मुझे छोड़ दो
नदियों के बीच
तर बतर होने दो
नदियों के कल-कल में
मुझे छोड़ दो
आदिवासियों के बीच
उनके मचान पर भी
खेलना चाहता हूं
मुझे छोड़ दो
गांव की गलियों  में
मैं गलियों के संग
दौड़ना चाहता हूं
मुझे छोड़ दो
असाक्षरों के बीच
मैं निपट अनपढ़
के मुख से
मुखर होना चाहता हूं

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 






Thursday, 26 June 2025

प्रकृति और स्त्री

प्रकृति 
सृजन के लिए ही बनी है
जिसे हम टूटना कहते हैं
जिसे हम जुड़ना कहते है
असल में वह
सृजन ही है
प्रकृति के
रचनात्मक मात्र 
एक क्रम में
टूटना और जुड़ना
दोनों ही परिस्थितियां
प्रकृति की अपार
रचनात्मक 
विशालता का प्रतीक है
हम प्रकृति की प्रकृति को
स्त्री की प्रकृति कह सकते हैं
दोनों में  संरचनात्मक 
कार्यात्मक  समानताएं हैं
इसी लिए अगर
स्त्री को समझना हो तो
प्रकृति के रास्ते से ही
ही समझना होगा
और प्रकृति को समझना हो तो
स्त्री के रास्ते से ही समझना होगा....

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 
 

Tuesday, 24 June 2025

पिता

एक कमीज थी
वो जब पहनी गई
फिर उतारी नहीं गई।
एक जूता था,
उसे जब पहना गया, 
फिर उतारा नहीं गया।
वो कमीज हर
थपेड़ों को सहती रही,
वो जूता हर
मुश्किलों को पार करता रहा।
कमीज दरकती रही,
जूता घिसता रहा,
हर अनुकूल और विपरीत 
मौसम में पहनी गई
एक ही कमीज,
एक ही जूता।
जिसने पहना था,
वो अजीब शख्स था।
वह रोया भी तो
बिना आंँसुओं के,
वह हंसा भी तो
बिना होंठ के।
असल में वो,
मौन रहकर,
सड़कर गलकर,
खाद बनना चाह रहा था।
वो अपना एक एक कतरा,
खाद बनने में ,
लगा रहा था।
जिससे संतति मिटृटी में
अपनी जड़ रोप सके,
और इस बात पर
उसे
संतोष था अपने होने का
अपनी जवाबदारी का
वो अजीब शख्स 
एक पिता था....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़

Thursday, 19 June 2025

जन-गण मन


भारत में बहता हुआ समीर
केवल समीर नहीं है
इस समीर में
अनंत सभ्यताओं का
अनंत संस्कृतियों की
आभा पुंज है
वसुधैव कुटुंबकम् 
का संकल्प है
यह आदर्श है 
विभिन्नताओं में
समानता का
यह समीर
भारत में
बहने वाला
प्राण पुंज है
और जब यह 
प्राण पुंज
असंख्य भारतीयों के
रगों में घुलता है
तो रग रग
प्राणमय हो जाता है
फिर यही प्राण
हिमालय की वृहद छोर से
कन्याकुमारी तक
गुजरात से पश्चिम बंगाल तक
असंख्य रुधिर कोशिकाओं में अनवरत
बहता रहता है
एक एक भारतीय में
ऊर्जा और ज्ञान का संचरण करता है
और हर एक भारतीय 
रविन्द्र के गीतों में बंध जाता है
जन गण मन की तरह....

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 




कबीर

पता है 
जैसे
किराने की दुकान
हर चौराहे पर
होती है
तुम्हारा व्यापार 
हो रहा है
तुम केवल
एक किराने की
व्यापार का सामान
हो गये हो
कोई तुम्हें खरीदता है
कोई तुम्हें बेचता है
कोई तुम्हे प्रायोजित करता है
तुम्हारी दोहे साखियां 
सब बिक रहीं हैं
तुम्हारा एक एक कहा
पंडालों पर बेची जा रही है
सबसे बड़ी बात 
तो यह है
तुम्हारे नाम से भी
पंथ बना लिए गये हैं
तुम कई तथाकथित 
संतो के रूप में 
अवतरित कर लिए गये हो
तुम्हें मूर्ति बनाकर
पूजा जा रहा है
बेचा जा रहा है
तुम  बिक रहे हो
धड़ाधड़
क्या तुम्हें पता है
"कबीर"
जो तुम कभी नहीं बनना
चाहते थे
तुम वही बना लिए गये हो....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

Friday, 25 April 2025

मेरा गांव


मेरा गांव

मिट्टी के घरों से
जीवन जा चुका है
अस्थि पंजर भी
धीरे -धीरे गलकर
खाक हो चुके हैं
खपरैलें टूटकर
बिखर गयीं है 
अब बरसात गिरता है
तो धड़ाम से गिरता है
कांक्रीट की छत पर
और कांक्रीट की गलियों पर
नीम का पेड़ सूख चुका है
उसके नीचे विराजमान 
'महमाई' देवी को
उसका नया कांक्रीट का
घर मिल चुका है
तालाब में 'पचरियां'
कांक्रीट की हो गयीं हैं
गांव के चारों तरफ
जो 'परिया'थीं
लूट लिए गये हैं
अब गांव की शांति
कांक्रीट की दीवारों
और कांक्रीट की गलियों से
टकराकर टूट जातीं हैं
कांक्रीट की घरों में रहकर 
लोगों की सोच और भावनाएं 
मानो कांक्रीट की
हो गयी है.....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 




Sunday, 20 April 2025

तुम्हारा रहेगा क्या.....

मैं तुम्हारा 
साथ देना चाहता हूं
पर सोचता हूं
मेरा साथ पाकर
तुम कहीं तुम्हारी
वास्तविकता खो  न दो
डरता हूं
तुम्हारे भीतर जो
लय और ताल पनपेगा 
वह मेरे कदमों का ही
प्रतिरूप न हो जाये 
तुम्हारी चेतना
कहीं मेरे विचारों का
समर्थन न करने लगे
इस तरह से तो
तुम
मेरी तरह हो जाओगे
फिर तुम्हारे पास
तुम्हारा रहेगा क्या.....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 




Saturday, 19 April 2025

पुन:

जिस घर में
मां की हाथों से
मिट्टी का लेप चढ़ा हो
जिस घर में 
मां की हाथों से
गोबर का रंग चढ़ा हो
जिस घर का
बाबूजी नींव हुए हों
उस घर का
हर एक कोना
स्वर्ग से भी
सुन्दर होता है
उस घर में
रहना
प्रेम और संस्कारों 
के बीच रहना है
जहां 
त्याग है
तपस्या है
जीवन है
ऐसा जीवन
जिसे पुन:
पाने के लिए
बार बार
मरने का मन होता है.....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 









Thursday, 17 April 2025

मैं और तुम

मैं और तुम

मैं और मेरा मैं
एक हो जाते हैं
कितनी आसानी से
मैं जो चाहता हूं
वहीं मेरा मैं भी चाहता है
तुम जो चाहते हो
वह तुम्हारा मैं चाहता है
तुम और तुम्हारा मैं
एक हो जाते हो
कितनी आसानी से
मैं केवल मेरा मैं चाहता हूं
और तुम केवल तुम्हारा मैं चाहते हो
मैं और तुम का
मिलना हम हो सकता है
पर मेरा मैं और तुम्हारा मैं
मध्यप्रदेश से गुजर रही
कर्क रेखा की तरह है.....


हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

एक पथ पर


एक पथ पर

चलो अच्छा ही हुआ
मैं अकेला चल पड़ा
लोगों का क्या है
सफ़र में
कुछ भी लाद देते
मेरी पीठ पर
अपना बोझ उतारने के लिए
और मैं उस बोझ तले
दब जाता
किसी के विचारों को लादना
अपनी पीठ पर
यह मेरे लिए तो संभव नहीं था
इसीलिए 
मैं चल रहा हूं
अपने विचारों के साथ
एक नवीन ऊर्जा के साथ
एक पथ पर
अकेला ही.....

हेमंत कुमार"अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

फूल की पीड़ा

"फूल की पीड़ा"


सुबह खिल भी ठीक से 
नहीं पाती है फूल
और उस फूल के
नृहसंस हत्यारे
उसे बलि का सामान 
समझने वाले
हथियारों से लेश
उसे तोड़ने पहुंच जाते है
फूल सुंदर होतीं हैं
खुशबुओं से भरीं होती है
इसका अर्थ यह तो नहीं
कि उसे अपने 
घरों में फंक्शन के लिए
नेताओं को रिझाने के लिए
मस्जिदों में महकने के लिए
अर्थियों को जीवंत करने के लिए
देवालयों में देवताओं को
प्रसन्न करने के लिए
तोड़ा जाय
और बली चढ़ा दिया जाय
फूल अमूक है
उसे बोलना नहीं आता
हम तो मानव हैं
हमें तो बोलना लिखना पढ़ना समझना
सब कुछ आता है
और सब कुछ जानते हुए
हम जानबूझ कर 
टूट पड़ते हैं
किसी का वंश
उजाड़ने के लिए
इसी लिए 
छोटी छोटी कलियों
और फूलों को तोड़ने 
वालों को
हत्यारा कहने में
कोई अतिशयोक्ति नहीं है.....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

भूख(लघु कहानी)

भूख

आज दिन भर कई मोहल्लों की खाक छानने के बाद, जमनी को कुछ पुरानी शीशियाँ और प्लास्टिक बेचकर थोड़े रुपये ही मिले।उस रुपय में उसने कुछ क्षण के लिए सही भूख की पीड़ा को खरीद लिया था ।वह खुशी-खुशी घर लौट रही थी। उसे कल भरपेट भोजन नहीं मिला था। इसलिए मन ही मन सोच रही थी—"आज अम्मा से कहूँगी कि कोई अच्छी सब्ज़ी और भात बनाए, तो पेट भर खाऊँगी।"इसी संतुष्टि के लिए ही तो वह इतनी मेहनत करती है।
पर जैसे ही जमनी घर पहुँची, उसने देखा कि उसका बाप शराब के नशे में बड़बड़ा रहा है। जमनी को उसने अधखुली आंखों से देखते हुए घुड़ककर बोला, "ला री तेरी कमाई!"
यह कहते हुए उसने जमनी के हाथों से सारा पैसा छीन लिया। विरोध करने पर जमनी को इनाम में दो रपट भी मिले। बेचारी जमनी... डर के मारे रो भी न पाई। आज फिर उसकी मेहनत की कमाई उसके नशेड़ी बाप की बोतलों के लिए कुर्बान हो गई थी।

चखने में समोसे के कुछ बचे-खुचे टुकड़े ,जो उसके नशेड़ी बाप ने छोड़ रख्खे थे और अम्मा द्वारा दबाकर रखी गई एक सूखी, पतली रोटी ही उसका सहारा बने। इन्हीं से कुछ समय के लिए भूख से राहत मिली।
पर एक रोटी कब तक टिकती? थोड़ी ही देर में भूख ने फिर से जमनी को जकड़ लिया। पेट की आग ने जमनी को  रात भर सोने नहीं दिया।

वह करवटें बदलती रही—कभी अपने भाग्य को कोसती, कभी अपने बाप को कोसती ! पल भर में रो पड़ती। कभी मन होता घर से चुपचाप भाग जाए, फिर सोचती—"जाऊँगी तो आखिर  जाऊंगी कहाँ?"

बार-बार खपरैल की दरारों के बीच बने रोशनदान को देखती और सुबह की आहट टटोलने लगती।

जैसे ही चिड़ियों ने चहचहाना शुरू किया, वह तपाक से उठ खड़ी हुई। उसने मुँह तक नहीं धोया। भूखे पेट में जैसे जान आ गई थी। आज उसने अम्मा को भी नहीं जगाया।

अपनी ही ऊँचाई की एक बोरी उठाई और तेज़ क़दमों से कूड़े के ढेर की ओर भागने लगी। उसकी आँखों में एक अजीब सा उतावलापन तैर रहा था। वह कभी किसी घर के सामने आँट को देखती, कि कहीं किसी ने कुत्तों या गायों के लिए कोई रोटी का टुकड़ा तो नहीं डाल रखा—"काश! वही खाकर मैं तृप्त हो जाती"पर भाग्य ने तो जमनी को जैसै  छलना सीख लिया था।

कभी कूड़े के ढेरों पर आँख गड़ाती, शायद कुछ बेचने लायक सामान मिल जाए। चलते-चलते उसने एक विवाह भोज वाले घर को देखा। बगल में रखी पत्तलों पर नज़र डाली, तो देखा—सारे दोने-पत्तल पहले ही चाटे जा चुके थे।मन ही मन सोचती क्या मेरा भाग्य उन गली के कुत्तों से भी गया गुजरा है!

उसका मन पूरी तरह से भूख और हताशा में डूब गया था। मन ही मन बुदबुदाई—"हाय मैया, आज भी कुछ खाने को नहीं मिलेगा क्या?"

फिर उसे परसों की बात याद आ गई—जब किसी मोहल्ले में एक भैया ने दावत में बचा खाना दे दिया था। कैसे उसने छककर बिरयानी और गुलाब जामुन खाए थे। "अहा! उस दिन तो मज़ा ही आ गया था..."

तभी अचानक गाड़ी की तेज़ हॉर्न से वह चौंक गई और बाल-बाल बची। ड्राइवर ने झिड़कते हुए कहा,
"मरना है क्या?"
और यह कहकर वह चलता बना।

बेचारी जमनी भूख से बेहाल हो चुकी थी। दोपहर के बारह बज चुके थे। भूख ने उसके पूरे शरीर पर तांडव मचा रखा था।

आँतें जैसे रीढ़ से लिपट गई थीं, मानो कोई नागिन डसने के लिए कुंडली मारकर फन फैलाए बैठी हो—बस डसना बाकी हो।

भूख से कराहती हुई जमनी बड़ी मुश्किल से सड़क किनारे पालिका के नल तक पहुँची। पीठ पर लदी बोरी—जो  पुराने डिब्बों और झिल्लियों से कुछ भरी थी—नीचे रखी और गंदे हाथों से नल का पानी पीने लगी।

भूख ने आँतों को इतना संकीर्ण कर दिया था कि दो घूंट पानी पीते ही वह दर्द से कराह उठी। पेट दबाते हुए वह सीधा सर के बल ज़मीन पर धड़ाम से गिर पड़ी...

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़

Tuesday, 15 April 2025

डेथ सर्कल

डेथ सर्कल


आकाश के ऊपर भेड़ों के
कई झुंड दौड़ रहे  थे
कोई काला कोई चितकबरा
कोई भूरा कोई सफेद झुंड
हवायें खेद रही थी उनको
चक्रवात के पैटर्न में
उन्हें पता ही नहीं था
इस अंतहीन यात्रा के बारे में
और वे सब दौड़ रहे थे 
दौड़े जा रहे थे...
डेथ सर्कल पर
असर ये हुआ
उन भेड़ों की तरह
पृथ्वी पर भी 
भेंड़ें
दौड़ रही थी
डेथ सर्कल पर...


हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

मैं बार -बार आउंगा

मैं बार-बार आऊंगा
बार-बार मरने के लिए....
मुझे मरना अच्छा लगता है
अपने देश के लिए.....
देश किसी के लिए
रहने का जगह होगा
देश मेरे लिए
तपस्या की जगह है
त्याग का जगह है
इसी लिए मैं 
बार बार आउंगा
बार बार तपूंगा
बार बार खपूंगा 
मेरी मां कहती है
तू तपता है 
तू खपता है तो
देश जी उठता है....



हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

Friday, 11 April 2025

एक अजनबी लड़की

दौड़ कर
अचानक 
एक अजनबी लड़की
अपनी संपूर्ण वात्सल्यता 
के साथ
मुझसे लिपटने आती
मैं सहम जाता
सहम इस लिए जाता
क्यों की
मुझमें पुरूष होने का
डर जो विद्यमान है
मैनै सुना है
पुरूष होने का
भय और दुर्भाग्य 
फिर भी मैं
घुटने टेककर
जब वह आती
बांहें फैला लेता
एक ओर उसका
वात्सल्य 
एक ओर मेरा
पितृत्व 
दोनों मिल जाते
एक आलौकिक 
संस्कार के साथ
हम दोनों
सदैव के लिए
एक बंधन में बंध जाते
मैं उसका पिता हो जाता
और वो मेरी बेटी.....

हेमंत कुमार ,"अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

Tuesday, 8 April 2025

पुनर्जन्म



पुनर्जन्म 

मां की गर्भ से 
जन्म होना
एक प्राकृतिक 
चरण है
अपने होने को प्रमाणित 
करने के लिए
जन्म लेने के बाद
एक बार और
जन्म लेना चाहिए 
यह जन्म 
आत्म विवेचन
के लिए होना चाहिए 
यह जन्म 
मानवता के 
उत्कर्ष के लिए
होना चाहिए 
कहीं ऐसा भी हो
जन्म हुआ नहीं
और आदमी
मर जाये......

हेमंत कुमार"अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

Monday, 7 April 2025

घर की तरफ

दूर तक मैं नहीं जाऊंगा
मुझे दूरियों से डर लगता है
मुझे चांद और तारे तोड़ लाने में
जरा भी दिलचस्पी नहीं है
हां दफ्तर जरूर जाउंगा
झोला लिए मुस्कुराते हुए
वापसी में झोला भरकर
सब्जियां लाउंगा
बच्चों को सामने वाले उद्यान में
टहला लाउंगा 
मम्मी के लिए मेडिकल से
दवाई ले आउंगा
श्रीमती को पास के ब्यूटी पार्लर तक
छोड़ आउंंगा
घर में सबके पास होने से
घर गुलाब की तरह 
महक उठता है
जो खुशी मिलती है
घर में
उसे सहेजने के लिए
रात होने से पहले मैं
घर की तरफ लौट आउंगा....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 
यह कविता मौलिक और अप्रकाशित है


काला धूप

जब वह थकता है
धूप के रेशमी 
तारों को ओढ़कर
सो जाता है
धूप से लिपटकर
उसे आराम करना
आता है...
धूप से लिपटकर
बस आराम ही नहीं
वह काम भी करता है
और धूप उसके प्रेम में
असंख्य रजत कणों के रूप में
उसके माथे पर 
पसर जाता है
प्रेम इतना की
जब वह नहीं आता 
धूप उनसे मिलने
खुद से चला जाता है
टूटे हुए छप्परों के बीच से...
उसने भी धूप को
आत्मसात कर लिया है
और तभी तो वह
काला हो गया है.....


हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

Sunday, 6 April 2025

आदमी

जब से आदमी 
जंगल से भागकर
मैदानों में रहने लगा है
उसका स्वाद ही
बदल गया है
तब से आदमी
आदमी को
खा  रहा है
आदमी आदमखोर हो गया है
और उसने
सुसंस्कृत या सभ्य
दिखते रहने के लिए
सभ्यता और आधुनिकता 
का खाल पहन लिया है
पहले आदमी
जब नंगा रहता था
सही मायनों में
आदमी तब आदमी होता था......


हेमंत कुमार"अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

Friday, 4 April 2025

"मैं आलौकिक से सोचता हूं"

"मैं आलौकिक से सोचता हूं"

१------मैं बाहरी दुनिया को देखता रहा
केवल अपने लिए
उसी के अनुरूप स्वंय को
ढालने की कोशिश करता रहा
इस तरह मैं स्वंय में
उलझकर मात्र रह गया
मेरा होना एक तरह से
न होने की तरह रहा
भीतर की तरफ
ध्यान ही नहीं गया
और एक दिन फिर
नि:शब्द हो गयी आत्मा
चलन से बाहर हो गये अंग
अंतत:जला दिया गया आग में 
या मिट्टी में खपा दिया गया

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 



Wednesday, 2 April 2025

जीवन और मृत्यु

जीवन और मृत्यु 


माता और पिता के
मिलने से 
एकाकार हुआ
फिर गर्भ में ही
उनसे अलग होता रहा
एक दिन 
पूर्णतः अलग हो गया
और स्वतंत्र हो गया
यही विन्यास है!!!
तो क्या विन्यास ही
जीवन है..???
और एकाकार होना 
मृत्यु है।



हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

तू जल तो सही


तू जल तो सही


तू जल तो सही
तू खप तो सही

पर्वत भी नतमस्तक होगा
सागर भी मीठा होगा
जीवन की जड़ता में
गोबर जैसे सड़ तो सही

दंभ ढले सड़कों से
वापस मुड़
पथरीली राहों पर चल
छाले हो तो सही

किसानों की पीड़ा में
अपना नीर बहाना सीख
बर्रे की खेतों में जाकर 
प्यारे चल तो सही

नहाया कर धूलों से
मिट्टी से बतियाया कर
कामगार के कपड़ों सा
दरक कर फट तो सही

तू जल तो सही
तू खप तो सही

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़