एक कमीज थी
वो जब पहनी गई
फिर उतारी नहीं गई।
एक जूता था,
उसे जब पहना गया,
फिर उतारा नहीं गया।
वो कमीज हर
थपेड़ों को सहती रही,
वो जूता हर
मुश्किलों को पार करता रहा।
कमीज दरकती रही,
जूता घिसता रहा,
हर अनुकूल और विपरीत
मौसम में पहनी गई
एक ही कमीज,
एक ही जूता।
जिसने पहना था,
वो अजीब शख्स था।
वह रोया भी तो
बिना आंँसुओं के,
वह हंसा भी तो
बिना होंठ के।
असल में वो,
मौन रहकर,
सड़कर गलकर,
खाद बनना चाह रहा था।
वो अपना एक एक कतरा,
खाद बनने में ,
लगा रहा था।
जिससे संतति मिटृटी में
अपनी जड़ रोप सके,
और इस बात पर
उसे
संतोष था अपने होने का
अपनी जवाबदारी का
वो अजीब शख्स
एक पिता था....
हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़
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