Friday, 4 July 2025

सुबह सुबह

सूरज निकलने से पहले
सुबह चार बजे ही 
'सुबह' उठ जाती है
पोंछा बर्तन करती है
घर आंगन को
झाड़ू करती है
चूल्हा जलाती है
पूरे घर के लिए
खाना बनाती है
और फिर
बच्चों के स्कूल
जाने के लिए
काम पर
जाने वाले
अपनी  मरद* के लिए
और खुद के लिए
टिफिन बांधती है
फिर 'सुबह'
लकर-धकर*
नहाती है
और
निकल पड़ती है
अपनी आंचल को
समेटती हुई 
अपनी तीन्नी को
खोंसती हुई
हंसते हंसते
अपना टिफिन लेकर
अपने गीले बालों
को सड़क पर
फटकारती हुई
तेज कदमों से
सुबह सुबह ही
काम पर.....

हेमंत कुमार'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

Tuesday, 1 July 2025

शब्द


शब्द मुझसे आकर
कहता  है
मुझे कविता में
न ढालो
मुझे गद्य में 
न लिखो
मुझे व्याकरण में
न बांधों
बंधकर रहना
मुझे अटपटा सा
लगता है
मुझे छोड़ दो
पलास के फूलों पर
पीपल के पत्तों पर
झूलने दो फुनगियों पर
मुझे छोड़ दो
पुरवाई के संग
उसकी तरंगों में
मुझे बहने दो
मुझे छोड़ दो
चिड़ियों के बीच
उनके कलरव के संग
चहकने  दो
मुझे छोड़ दो
नदियों के बीच
बहने दो
नदियों की कल-कल में रमने दो
मुझे छोड़ दो
आदिवासियों के बीच
उनके मचानों पर
मुझे खेलने दो
मुझे छोड़ दो
गांव की गलियों  में
उछलने कूदने दो
मुझे छोड़ दो
अनगढ़ अनपढ़ों
के बीच
मुझे उनके मुख से
मुखरित होने दो....

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 






Thursday, 26 June 2025

प्रकृति और स्त्री

प्रकृति 
सृजन के लिए ही बनी है
जिसे हम टूटना कहते हैं
जिसे हम जुड़ना कहते है
असल में वह
सृजन ही है
प्रकृति के
रचनात्मक मात्र 
एक क्रम में
टूटना और जुड़ना
दोनों ही परिस्थितियां
प्रकृति की अपार
रचनात्मक 
विशालता का प्रतीक है
हम प्रकृति की प्रकृति को
स्त्री की प्रकृति कह सकते हैं
दोनों में  संरचनात्मक 
कार्यात्मक  समानताएं हैं
इसी लिए अगर
स्त्री को समझना हो तो
प्रकृति के रास्ते से ही
ही समझना होगा
और प्रकृति को समझना हो तो
स्त्री के रास्ते से ही समझना होगा....

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 
 

Tuesday, 24 June 2025

पिता

एक कमीज थी
वो जब पहनी गई
फिर उतारी नहीं गई।
एक जूता था,
उसे जब पहना गया, 
फिर उतारा नहीं गया।
वो कमीज हर
थपेड़ों को सहती रही,
वो जूता हर
मुश्किलों को पार करता रहा।
कमीज दरकती रही,
जूता घिसता रहा,
हर अनुकूल और विपरीत 
मौसम में पहनी गई
एक ही कमीज,
एक ही जूता।
जिसने पहना था,
वो अजीब शख्स था।
वह रोया भी तो
बिना आंँसुओं के,
वह हंसा भी तो
बिना होंठ के।
असल में वो,
मौन रहकर,
सड़कर गलकर,
खाद बनना चाह रहा था।
वो अपना एक एक कतरा,
खाद बनने में ,
लगा रहा था।
जिससे संतति मिटृटी में
अपनी जड़ रोप सके,
और इस बात पर
उसे
संतोष था अपने होने का
अपनी जवाबदारी का
वो अजीब शख्स 
एक पिता था....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़

Thursday, 19 June 2025

जन-गण मन


भारत में बहता हुआ समीर
केवल समीर नहीं है
इस समीर में
अनंत सभ्यताओं का
अनंत संस्कृतियों की
आभा पुंज है
वसुधैव कुटुंबकम् 
का संकल्प है
यह आदर्श है 
विभिन्नताओं में
समानता का
यह समीर
भारत में
बहने वाला
प्राण पुंज है
और जब यह 
प्राण पुंज
असंख्य भारतीयों के
रगों में घुलता है
तो रग रग
प्राणमय हो जाता है
फिर यही प्राण
हिमालय की वृहद छोर से
कन्याकुमारी तक
गुजरात से पश्चिम बंगाल तक
असंख्य रुधिर कोशिकाओं में अनवरत
बहता रहता है
एक एक भारतीय में
ऊर्जा और ज्ञान का संचरण करता है
और हर एक भारतीय 
रविन्द्र के गीतों में बंध जाता है
जन गण मन की तरह....

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 




कबीर

पता है 
जैसे
किराने की दुकान
हर चौराहे पर
होती है
तुम्हारा व्यापार 
हो रहा है
तुम केवल
एक किराने की
व्यापार का सामान
हो गये हो
कोई तुम्हें खरीदता है
कोई तुम्हें बेचता है
कोई तुम्हे प्रायोजित करता है
तुम्हारी दोहे साखियां 
सब बिक रहीं हैं
तुम्हारा एक एक कहा
पंडालों पर बेची जा रही है
सबसे बड़ी बात 
तो यह है
तुम्हारे नाम से भी
पंथ बना लिए गये हैं
तुम कई तथाकथित 
संतो के रूप में 
अवतरित कर लिए गये हो
तुम्हें मूर्ति बनाकर
पूजा जा रहा है
बेचा जा रहा है
तुम  बिक रहे हो
धड़ाधड़
क्या तुम्हें पता है
"कबीर"
जो तुम कभी नहीं बनना
चाहते थे
तुम वही बना लिए गये हो....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

Friday, 25 April 2025

मेरा गांव


मेरा गांव

मिट्टी के घरों से
जीवन जा चुका है
अस्थि पंजर भी
धीरे -धीरे गलकर
खाक हो चुके हैं
खपरैलें टूटकर
बिखर गयीं है 
अब बरसात गिरता है
तो धड़ाम से गिरता है
कांक्रीट की छत पर
और कांक्रीट की गलियों पर
नीम का पेड़ सूख चुका है
उसके नीचे विराजमान 
'महमाई' देवी को
उसका नया कांक्रीट का
घर मिल चुका है
तालाब में 'पचरियां'
कांक्रीट की हो गयीं हैं
गांव के चारों तरफ
जो 'परिया'थीं
लूट लिए गये हैं
अब गांव की शांति
कांक्रीट की दीवारों
और कांक्रीट की गलियों से
टकराकर टूट जातीं हैं
कांक्रीट की घरों में रहकर 
लोगों की सोच और भावनाएं 
मानो कांक्रीट की
हो गयी है.....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़