Thursday, 17 April 2025

भूख(लघु कहानी)

भूख

आज दिन भर कई मोहल्लों की खाक छानने के बाद, जमनी को कुछ पुरानी शीशियाँ और प्लास्टिक बेचकर थोड़े रुपये ही मिले।उस रुपय में उसने कुछ क्षण के लिए सही भूख की पीड़ा को खरीद लिया था ।वह खुशी-खुशी घर लौट रही थी। उसे कल भरपेट भोजन नहीं मिला था। इसलिए मन ही मन सोच रही थी—"आज अम्मा से कहूँगी कि कोई अच्छी सब्ज़ी और भात बनाए, तो पेट भर खाऊँगी।"इसी संतुष्टि के लिए ही तो वह इतनी मेहनत करती है।
पर जैसे ही जमनी घर पहुँची, उसने देखा कि उसका बाप शराब के नशे में बड़बड़ा रहा है। जमनी को उसने अधखुली आंखों से देखते हुए घुड़ककर बोला, "ला री तेरी कमाई!"
यह कहते हुए उसने जमनी के हाथों से सारा पैसा छीन लिया। विरोध करने पर जमनी को इनाम में दो रपट भी मिले। बेचारी जमनी... डर के मारे रो भी न पाई। आज फिर उसकी मेहनत की कमाई उसके नशेड़ी बाप की बोतलों के लिए कुर्बान हो गई थी।

चखने में समोसे के कुछ बचे-खुचे टुकड़े ,जो उसके नशेड़ी बाप ने छोड़ रख्खे थे और अम्मा द्वारा दबाकर रखी गई एक सूखी, पतली रोटी ही उसका सहारा बने। इन्हीं से कुछ समय के लिए भूख से राहत मिली।
पर एक रोटी कब तक टिकती? थोड़ी ही देर में भूख ने फिर से जमनी को जकड़ लिया। पेट की आग ने जमनी को  रात भर सोने नहीं दिया।

वह करवटें बदलती रही—कभी अपने भाग्य को कोसती, कभी अपने बाप को कोसती ! पल भर में रो पड़ती। कभी मन होता घर से चुपचाप भाग जाए, फिर सोचती—"जाऊँगी तो आखिर  जाऊंगी कहाँ?"

बार-बार खपरैल की दरारों के बीच बने रोशनदान को देखती और सुबह की आहट टटोलने लगती।

जैसे ही चिड़ियों ने चहचहाना शुरू किया, वह तपाक से उठ खड़ी हुई। उसने मुँह तक नहीं धोया। भूखे पेट में जैसे जान आ गई थी। आज उसने अम्मा को भी नहीं जगाया।

अपनी ही ऊँचाई की एक बोरी उठाई और तेज़ क़दमों से कूड़े के ढेर की ओर भागने लगी। उसकी आँखों में एक अजीब सा उतावलापन तैर रहा था। वह कभी किसी घर के सामने आँट को देखती, कि कहीं किसी ने कुत्तों या गायों के लिए कोई रोटी का टुकड़ा तो नहीं डाल रखा—"काश! वही खाकर मैं तृप्त हो जाती"पर भाग्य ने तो जमनी को जैसै  छलना सीख लिया था।

कभी कूड़े के ढेरों पर आँख गड़ाती, शायद कुछ बेचने लायक सामान मिल जाए। चलते-चलते उसने एक विवाह भोज वाले घर को देखा। बगल में रखी पत्तलों पर नज़र डाली, तो देखा—सारे दोने-पत्तल पहले ही चाटे जा चुके थे।मन ही मन सोचती क्या मेरा भाग्य उन गली के कुत्तों से भी गया गुजरा है!

उसका मन पूरी तरह से भूख और हताशा में डूब गया था। मन ही मन बुदबुदाई—"हाय मैया, आज भी कुछ खाने को नहीं मिलेगा क्या?"

फिर उसे परसों की बात याद आ गई—जब किसी मोहल्ले में एक भैया ने दावत में बचा खाना दे दिया था। कैसे उसने छककर बिरयानी और गुलाब जामुन खाए थे। "अहा! उस दिन तो मज़ा ही आ गया था..."

तभी अचानक गाड़ी की तेज़ हॉर्न से वह चौंक गई और बाल-बाल बची। ड्राइवर ने झिड़कते हुए कहा,
"मरना है क्या?"
और यह कहकर वह चलता बना।

बेचारी जमनी भूख से बेहाल हो चुकी थी। दोपहर के बारह बज चुके थे। भूख ने उसके पूरे शरीर पर तांडव मचा रखा था।

आँतें जैसे रीढ़ से लिपट गई थीं, मानो कोई नागिन डसने के लिए कुंडली मारकर फन फैलाए बैठी हो—बस डसना बाकी हो।

भूख से कराहती हुई जमनी बड़ी मुश्किल से सड़क किनारे पालिका के नल तक पहुँची। पीठ पर लदी बोरी—जो  पुराने डिब्बों और झिल्लियों से कुछ भरी थी—नीचे रखी और गंदे हाथों से नल का पानी पीने लगी।

भूख ने आँतों को इतना संकीर्ण कर दिया था कि दो घूंट पानी पीते ही वह दर्द से कराह उठी। पेट दबाते हुए वह सीधा सर के बल ज़मीन पर धड़ाम से गिर पड़ी...

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़

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