दो पैसे जो हाथ आ गए
खुद को तू राजा कहता है
भूल गया बीते पल कैसे
घर आँगन परछी खपरेलें
अम्मा बापू की बिस्तर में
चुहती जब बरसाती रेलें
गाँव गली ना याद रहा अब
केवल पैसों में बहता है
पेट काटकर जिसने तुझको
अपना भी भाग खिलाया था
जब तू रोता रात रात भर
खुद जगकर तुझे सुलाया था
ऐसी माता की ममता को
अपनी कृत्यों से छलता है
जिस बरगद की छाया में तू
रोया गाया हँसकर बोला
जनम लिया जिस पावन माटी
उसको भी पैसों में तोला
भूल गया सब रिस्ते नाते
जाने किस दुनिया रहता है
अम्मा बापू की सुध लेने
गाँव कभी ना मुड़कर देखा
संगी साथी अस्पृश्य हुए
खींच गया इक लक्ष्मण रेखा
अहंकार से मद होकर
पागल हाथी सा फिरता है
दो पैसे जो हाथ आ गए
खुद को तू राजा कहता है
हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा
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