Sunday, 6 July 2025

प्रेम

मैं तुमसे
अगाध
प्रेम करता हूं
पर उस तरह नहीं
जिस तरह तुम
या दुनिया 
चाहती है
यह जो तरह शब्द है
प्रेम को
अपूर्ण कर देती है
सच कहूं तो
मैं तुम्हारी 
भावनाओं के
उस हिस्से में
रहना चाहता हूं
जहां घोर
रेगिस्तान है
गर्म हवाएं
जहां रेतों को
इधर से उधर
पटकती रहतीं है
मैं उस रेगिस्तान की
उष्णता में 
प्रेम को तलाशना 
चाहता हूं
मैं उस रेगिस्तान में
प्रेम का बीज
बोना चाहता हूं
और
बादल बनकर
बरसना चाहता हूं.....

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 



Friday, 4 July 2025

सुबह सुबह

सूरज निकलने से पहले
सुबह चार बजे ही 
'सुबह' उठ जाती है
पोंछा बर्तन करती है
घर आंगन को
झाड़ू करती है
चूल्हा जलाती है
पूरे घर के लिए
खाना बनाती है
और फिर
बच्चों के स्कूल
जाने के लिए
काम पर
जाने वाले
अपनी  मरद* के लिए
और खुद के लिए
टिफिन बांधती है
फिर 'सुबह'
लकर-धकर*
नहाती है
और
निकल पड़ती है
अपनी आंचल को
समेटती हुई 
अपनी तीन्नी को
खोंसती हुई
हंसते हंसते
अपना टिफिन लेकर
अपने गीले बालों
को सड़क पर
फटकारती हुई
तेज कदमों से
सुबह सुबह ही
काम पर.....

हेमंत कुमार'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

Tuesday, 1 July 2025

शब्द


शब्द मुझसे आकर
कहता  है
मुझे कविता में
न ढालो
मुझे गद्य में 
न लिखो
मुझे व्याकरण में
न बांधों
बंधकर रहना
मुझे अटपटा सा
लगता है
मुझे छोड़ दो
पलास के फूलों पर
पीपल के पत्तों पर
झूलने दो फुनगियों पर
मुझे छोड़ दो
पुरवाई के संग
उसकी तरंगों में
मुझे बहने दो
मुझे छोड़ दो
चिड़ियों के बीच
उनके कलरव के संग
चहकने  दो
मुझे छोड़ दो
नदियों के बीच
बहने दो
नदियों की कल-कल में रमने दो
मुझे छोड़ दो
आदिवासियों के बीच
उनके मचानों पर
मुझे खेलने दो
मुझे छोड़ दो
गांव की गलियों  में
उछलने कूदने दो
मुझे छोड़ दो
अनगढ़ अनपढ़ों
के बीच
मुझे उनके मुख से
मुखरित होने दो....

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़