Saturday, 18 October 2025

गांव


गांव

कुछ गांव
शहर में
पहुंच चुके हैं
गांव को छोड़कर
कुछ गांव निकल रहे हैं
शहर की ओर
गांव छोड़कर
कुछ गांव फुसफुसा रहें हैं
शहर और गांव के बीच
कुछ गांव बैठे हैं
शाम को
अपने -अपने गांव में
बड़े ही शुकून के साथ
और गप्पे लड़ा रहें हैं....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

दीपावली


दीपावली 

बुधरी के घर भी हर साल 
दीप जलता है
दीपावली पर
पूरा गांव दीप जलाता है
इस लिए वह भी
जलाता है
पूरा गांव दीपावली के दिन
अपने वैभव का
सत्कार करता है
खील बताशे मिठाइयां 
और भी न जाने
क्या क्या व्यंजन
दीप को अर्पित किये जाते हैं
पूरा गांव दीपावली पर
तेल के दिये की रौशनी से
मानो नहा उठता है
पूरा गांव उस दिन
अद्भुत व्यंजनों का
रात भर लुत्फ उठाता है
पर बुधरी और उसकी बाई को
दीपावली के कुछ दियों को 
रौशन करने के लिए
अपने भूख को
बिना खाये-पिये ही
सुलाना पड़ता है...

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 





Monday, 13 October 2025

शब्द मेरी चेतना

मैं विस्थापित कर देना चाहता हूं
अपने आप से
स्थापित शब्द
ये स्थापित शब्द
मुझे मेरी चेतना से
अलग कर देते है
स्थापित शब्द अपने विचारों को
मेरी आत्मा में
केवल और केवल
लादना चाहते है
मैं किसी स्थापित शब्द के
दृष्टिकोण से सोचकर
उस सोच के साथ
अपना स्थापित सोच 
नहीं बना सकता
और क्यों बनाऊं ?
मै भी उस बादल को
महसूसना चाहता हूं
जो रात के अंधेरे में
पत्तियों पर ओस की बूंदें छोड़ जाता है
मैं उस नदी के साथ
बहकर जानना चाहता हूं
नदी का संघर्ष 
मैं उस पर्वत से मिलना चाहता हूं
जिसका विशाल शरीर ऊपर पहुंचते-पहुंचते 
एक सुई के नोक जैसा हो जाता है
मैं कोलतार की सड़कों पर
भरी दोपहरी में
नंगे पांव चलना चाहता हूं
और सुनना चाहता हूं
जलती हुई सड़कों पर
गरीबी के गीत
मैं महुआ बिनती स्त्री को
उसके पांव से लेकर उसके घर तक
सूंघना चाहता हूं
मैं साइकिल और खटिया से
ढोई जा रही लाशों के गांवों को
तथाकथित आधुनिक सभ्यता में
खोजना चाहता हूं
पर उन
स्थापित शब्दों के साथ नहीं
जहां मेरे शब्दों की मौलिकता 
खत्म हो जाती है
वरन उन शब्दों के साथ
जो शब्द मुझे 
मेरी आत्मा से बात करने दे!!

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 














Saturday, 11 October 2025

पूरा घर

आज चूल्हा बहुत खुश है
खुश इतना कि
पहले से ही उसने
उपले और लकड़ियों को
अपने पास में 
इकठ्ठा कर लिया है
और घर के डेकचियों को
फुसफुसा आया है
कि आज तुझमें दाल बनेंगे
और तुझमें भात 
कड़ाही से भी कह आया है
देखना आज तुझमें
कोई न कोई तरी वाला चटपटा
साग बनेगा
घर की दीवारें उछल-उछल कह रहे हैं
इस बार जरूर छुही के साथ
हम भी
टेहर्रा रंग से पोते जाएंगे
पैरा की छप्परें-
खपरैलों का संसार देखने लगी है
घर से लगा कोठार
पहले से ही जीमीकंद का डंठल
खीरा, तोरई ,फूट और
बरबट्टी के सूखे नारों को काट कर
बिलकुल दुल्हे की तरह सज गया है
और पल -पल
बैलगाड़ी का इंतजार किया जा रहा है 
पर जब तिहारू
खेत से घर आया
पसीने से तर - बतर था
सिर पर बंधे हुए सफेद गमछा को
निकाला और 
घर की आंट पर  हताश बैठ गया
इस बार भी धान की फसल
हर बार की तरह
खेत में ही नाप लिए गये थे
तिहारू खेत से
खाली हाथ घर लौटा था
कोठार से लेकर पूरा घर
तिहारू को देखकर
भौंचक्का रह गया
घर को समझने में देर न लगा
और झट ही
उस घर से एक बहुत बूढ़ा घर निकला
तिहारू को गले लगाते हुए बोला
कोई बात नहीं बेटा
तुमने बहुत मेहनत की
इस बार भी....
ये कथन सुनते ही
तिहारू के संग पूरा घर
एक बार फिर 
भूख और इच्छाओं को भूलकर
खुशी से झूम उठा....

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़

Thursday, 9 October 2025

चुपु -चुपु, पुइयों -पुइयों


चुपु-चुपु ,पुइयों-पुइयों



चुपु-चुपु ,पुइयों-पुइयों
की आवाज वाली
सेंडल पहनी
एक लड़की 
मुझे गली से रोज
देखती है
महज डेढ़ बरस की होगी
वो रोज दौड़ लगाती है
हमारी गली में
पड़ौस में ही रहती है
अभी-अभी चलना सीखा है
अक्सर गेट के पास आ जाती है
झुककर देखती है 
शायद मुझे ही देखती है
और जब मैं उसे देख लेता हूं
अपनी बंधी हुई मुठ्ठी से 
एक ऊंगली निकाल कर
मिठ्ठू की चोंच जैसे
ऊपर नीचे हिलाने लगता हूं
वो भी करने की
कोशिश करती है
और हंसने लग जाती है
मैं भी हंसता हूं
मुझे हंसता देख वह
जोर-जोर से
कूदने लगती है
और चुपु-चुपु, पुइयों-पुइयों 
वाली सेंडल की आवाज से
पूरा घर 
कुछ समय के लिए ही सही
बचपन की तरफ
लौट आता है....

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 





Tuesday, 30 September 2025

मैं फिर आऊंगा

मैं फिर आऊंगा 


बसंत ने आना नहीं छोड़ा है...
अभी भी
वह किसी तरह
अपनी तय सीमा में 
पहुंच ही जाता है
खिलखिता ,गुनगुनाता,नाचता हुआ
और आता है तो
मदमस्त आता है
सबके लिए ...
वह जब आता है
हवाएं लिपट जाती हैं उससे
फूल खिलने लगते हैं
तितलियां,भौंरे और मधुमक्खियां
उस लय और ताल में
थिरकने लगती हैं
पलास दहक उठता है
सेमल अपनी फूलों के साथ
'सांकृत्यायन' को ही मानो
अपनी यात्राओं का
वृतांत सुनाने लग जाती हैं
महुआ का पेड़ 
अपने गोड़ीं रिवाज में
अर्ध्य समर्पित करने लग जाता है
गुलमोहर के फ्लेम
कोलतार की सड़कों पर
शीतलता बिखेरने लग जातीं हैं
आम का बौर
अपनी सारी प्रेम कहानियां 
अमराई को सुनाने लग जाता है
नदियां अपने बीच आए 
पत्थरों के साथ
लय,ताल और सुर मिलाने लग जातीं है
तीतर, बटेर ,मोर
और न जाने कितने
अपनी पीढ़ी को
बसंत के साथ रोपने लग जाते हैं
आने वाले बसंत के लिए
पर बसंत इस बार
हर बार की तरह
खुश तो है मगर
उदास भी है
वह इस बार भी
बार-बार की तरह
गांव से होकर
शहर की बड़ी-बड़ी
अट्टालिकाओं के साथ भी
गीत गाना चाहता है
नाचना चाहता है
और इस हेतु
वह गया भी था
बड़ी ऊंची दीवारों के सहारे
पर अट्टालिकाओं की खिड़कियों नें
उनके तरफ देखा तक नहीं...
उसने खिड़कियों की तरफ
मुस्कुराकर देखते हुए कहा
खैर कोई बात नहीं!
मैं फिर आऊंगा
पर
बसंत अब लौट जाना चाहता है
पूरे साल भर के लिए....

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 








Thursday, 25 September 2025

आठ सौ स्क्वेयर फूट

आठ सौ स्क्वेयर फूट


घर वास्तव में
प्रेम और आवश्यकताओं का
एक गतिशील समूह है
प्रेम भी अनंत है
और आवश्यकताएं भी अनंत है
परंतु घर में 
परिश्रम अनंत नहीं है
इस लिए घर 
हमेशा उलझता और सुलझता हुआ
घर रहता है
कभी दीवारें दरकती हैं
कभी छत टपकता है
कभी पेंट भरभराता है
कभी दरवाजे का कें-कें, रें -रें 
बच्चों का ट्यूशन 
कालेज की फीस
हास्टल का चार्ज
घर का राशन
बिजली का बिल 
मां की दवाई...
इन सब का सामंजस्य 
हमेशा उलझा हुआ रहता है
प्रेम के ताने-बाने के संग
इस लिए 
आठ सौ स्क्वेयर फूट का घर भी
बहुत बड़ा घर होता है
इतना बड़ा कि
पूरे तीस दिन की सैलरी
पन्द्रह दिन में हांफ जाती है....

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़