Tuesday, 16 September 2025

बसंत के मौसम में जब उस पेड़ से मिला....

बसंत के मौसम में
जब उस पेड़ से मिला...

बसंत के मौसम में
जब उस पेड़ से मिला 
वो खड़ा था चुपचाप
फूलों से लदा 
हवाएंँ सरसराकर आतीं थीं
और लहराकर 
उनके फूलों से लिपटकर
खुशबु चुराकर भाग जातीं थीं
फूल भी हवाओं के साथ
दिन-रात झूलते और
लहराकर मदमस्त हो जाते
तितलियांँ ,भौंरे कई तरह के पक्षी 
उन फूलों पर जान छिड़कते
कुछ पक्षी तो उस पेड़ पर
फूलों के साथ 
दिन-रात बिताने लगे थे
सब प्रेम में मग्न थे
पर वह पेड़ चुपचाप उदास खड़ा रहता था
न बसंत की हवाओं को 
उनसे कोई मतलब था
न फूलों को न तितलियों को न पक्षियों को
वैसे तो वो पेड़
नौ महीने अकेला ही रहता था
पर बसंत के इन तीन महीनों में
सबसे ज्यादा अकेला और 
सबसे ज्यादा उदास होता था....


हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़

Tuesday, 9 September 2025

पितृपक्ष

'पितृ पक्ष'

पितृ पक्ष
मेरे लिए
खास होता है
खास इसलिए होता है कि
मैं बहुत कुछ
जानना चाहता हूं
अपने पितरों के 
इतिहास के बारे में
मेरे पास जो जानकारी है
दादा परदादा तक ही है
मैं
पर-परदादाओं को भी 
जानना चाहता हूं
पर खेद है!
उन मेरे वंशजों को
कोई माध्यम नहीं है
जानने का
कबीर पंथ में क्रिया कर्म
सब घर में ही हो जाते हैं
अतः लेख भी उपलब्ध नहीं हैं
खैर कोई बात नहीं!
मेरे मन में हमेशा कौतूहल रही है
कि, मेरे वंशज
किस तरह के मकानों में
रहते रहे होंगे
कि वे किस तरह के कपड़े पहनते
रहे होंगें
कि वे त्योहार किस तरह से 
मनाते रहे होंगें 
कि उनकी
सांस्कृतिक परंपराएं और
खान-पान 
किस तरह की रही होंगी
इत्यादि....
मुझे तर्पण करने में
कोई लगाव नहीं है
'बरा-सोंहारी' भी
नहीं 'खवाना' मुझे
ना छत पर
दाल-भात
फेंकना है 
अपने पितरों के लिए
रूढ़िवादी विचारों से
मेरा कोई सरोकार नहीं है
बस मैं तो
स्वस्थ मानसिकता और
स्वस्थ प्रेम से
उन्हें जानना चाहता हूं
उन्हें याद करना चाहता हूं
मैं पितृपक्ष का
सदैव आभारी रहूंगा 
जीवन के इस 
भाग-दौड़ में
अपने पूर्वजों को
जिन्हें हम भूल
गये होते हैं
उन्हे याद करने
उनका गौरव गान करने 
का एक मौका
यह पितृपक्ष 
देता है
यह पन्द्रह दिन 
मेरे लिए बहुत
असाधारण रहता है
मैं अपने होने को
उनमें तलाशता रहता हूं....

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़

Thursday, 4 September 2025

अंतिम पड़ाव

अंतिम पड़ाव

जिन चीजों से लगाव था
पहले कभी
जिसे पाने के लिए
मन
बावरा हुआ रहता था
आज वह सब चीजें
अचानक
निर्थक सी 
जान पड़ने लगीं है
मन अब 
संतुलन के बाहर
अचेतन अवस्था में
भ्रमण करने लगा है
चुपके-चुपके 
उम्र के
अंकों का गणित 
बढ़ते क्रम में
शून्य की ओर
बढ़ने लगा है
शिथिलता 
शरीर का अनिवार्य तत्व
हो गया है
मस्तिष्क के
अंतरिक्ष में
एक ब्लैक होल 
बन रहा है
जो स्मृतियों को
आहिस्ता-आहिस्ता निगल रहा है
शायद उसी का 
यह परिणाम है
अब मैं
दुनिया के संग-संग
खुद को भी
भूलने लगा हूं...

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 
'यह कविता मौलिक व अप्रकाशित है'

(उम्र के अंतिम पड़ाव में दादा जी के विचारों का काव्य रूपांतरण)

Wednesday, 3 September 2025

विद्रोह से पहले

विद्रोह से पहले



एक घर है
मेरे मुहल्ले में
मैं आते-जाते
रोज ही
उस घर को देखता हूं
मुझे और घर
आते-जाते
कभी-कभी दिखाई देते है
पर वह घर
रोज ही 
दिखाई देता है
इसलिए दिखाई देता है
कि उस घर के ऊपरी मंजिल में
एक खिड़की हमेशा खुली रहती है
और चूड़ियों से भरे हाथ
बाहर निकले हुए होते हैं
जो बाहर की रौशनी में
स्पष्ट दिखाई देता है
ऐसा लगता है उस घर में
उस कमरे की लाईट
रोज ही बंद रहती है
ध्यान से देखने पर दिखता है
कुछ घुंघराले काले बाल
और एक सिर
जो
खिड़की के जेल सरिखे छड़ों पर
 हमेशा टिका रहता है
आंख ऊपर किए
और
आकाश की तरफ देखता रहता है...

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़ 


Tuesday, 2 September 2025

वहम

मैं जब रात में 
तारों को देखता हूं
कितनाअच्छा लगता है
तारों का समूह
ऐसा लगता है
मानो एक दूसरे से
प्रेमबद्ध होकर
एक दूसरे के
ह्रदय में समा रहे हों
जैसे ...
ये एक दूसरे के लिए ही
बने हों
सारा आकाश
रात भर
तारों के आलिंगन से
भरा होता है
शुक्र है
मैं ये जानता हूं
यह एक वहम है
दूर से देखने पर
सब कुछ पास ही
दिखाई देता है....!!!

हेमंत कुमार "अगम"
भाटापारा छत्तीसगढ़ 

Sunday, 31 August 2025

मेरी मां

मां मुझे 
मेरे शरीर में
उठ रही तरंगों से
पहचान लेती है
आज मैं अड़तालीस का
हो गया हूं
और वह बहत्तर के करीब है
जब मैं घर में रहता हूं
मैं जिधर भी जाऊं 
इस कमरे से उस कमरे तक
या पोर्च तक जाऊं
या छत पर चढ़ जाऊं 
हर पल उसकी आंखें
मुझे तलाश करती रहतीं है
मां पल-पल मुझे संज्ञान में रखती है
वह बहरी भी हो गई है
पर मैं अगर धीरे से भी बोलूं 
वह तुरंत समझ जाती है
मेरे होंठ लपलपातें हैं
और उनकी धुंधली आंखें
मुझे झटपट पढ़ लेतीं हैं
कुछ समय ऐसा भी आता है
जब मैं और मां केवल रहते हैं
तब मैं देखता हूं
मां के हाथ पैरों में गजब का
फुर्तीलापन आ जाता है
बिन कहे वह सब जान लेती है
दाल भात सब्जियां 
उसके कांपते हाथों से
केवल मेरे पसंद की
बनने लगती है
स्कूल के लिए निकलूं तो 
मोटर साइकिल की चाबी 
रेन कोट, हेलमेट ,पेन
सब कुछ तैयार मिलता है
और मैं जब जाने लगूं 
मां मुझे दूर तक देखती है
मैं भी रुकता हूं
अपनी मां के लिए
दूर से ही सही एक पल के लिए 
मुड़कर देखता हूं
अपनी मां को
और अपने काम पर चला जाता हूं....

हेमंत कुमार 'अगम' 
भाटापारा छत्तीसगढ़ 






Wednesday, 27 August 2025

जंगल सत्याग्रह

जंगल सत्याग्रह

एक आम का पेड़, जंगल के बीचों-बीच रहता था। अंबू उसका नाम था।
सब पेड़ों से उसकी दोस्ती थी। पेड़ों से बातें करना, हँसना उसे अच्छा लगता था।
अंबू आम का पेड़ दूसरे पेड़ों के घर भी घूमने जाता था।
अंबू जब अपने पेड़ दोस्तों के घर जाता तो ताज़ा मीठा आम भी ले जाता और बड़े प्यार से अपने दोस्तों को खिलाता।
सभी दोस्त मीठे रसीले आम की प्रसंसा करते और अंबू मन ही मन ख़ुशी से झूम उठता।

जंगल के सारे दोस्त जब अपने दोस्तों के घर जाते, तो अपना मीठा फल भी ले जाते और अपना प्रेम जताते।
यह प्रेम कितना अच्छा था न!

जंगल के सारे पेड़ बहुत सारा फल मानवों और अन्य जीवों के लिए भी छोड़ देते थे और खुश होते थे।

एक दिन अंबू सो रहा था, तभी आवाज़ आई—खट-खट।
अंबू ने दरवाज़ा खोला तो देखा कि जंबू, जामुन का पेड़, हाँफ रहा है।
अंबू बोला—“अंदर आओ दोस्त।”
जंबू बोला—“न-न-न… आने का समय नहीं है।”
अंबू घबरा गया—“आख़िर क्या हुआ? बताओ न…”

जंबू बोला—“गाँव किनारे वाले जंगल काटे जा रहे हैं!
कई पेड़ मारे जा चुके हैं, नन्हे-मुन्ने पेड़ों को भी नहीं छोड़ा जा रहा है।”

अंबू डरते हुए बोला—“यह तो बहुत बुरा हो रहा है। क्या उन मानवों को यह मालूम नहीं कि हम पेड़ ही उन्हें फल, सब्ज़ियाँ, अन्न और प्राणदायी हवा देते हैं! और देखो उनकी नासमझी कि हमें ही काट रहे हैं।”

थोड़ी ही देर में यह बात जंगल में पेड़ों के बीच आग की तरह फैल गई।

उधर नदी किनारे से बबूल कटिला दौड़ता हुआ अपने दोस्तों के साथ अंबू के पास आ रहा था।
अंबू को देखते ही बबूल कटिला गुस्से से लाल होते हुए बोला—
“अंबू भाया! मैं उन सारे मानवों को अपने काँटों से छेद डालूँगा। बहुत कुछ सहन कर लिया है हमने। अब लड़ाई आर-पार की होगी।”

बबूल कटिला और उसके दोस्तों ने एक स्वर से चिल्लाया—
“हाँ-हाँ! आर या पार!”

पर अंबू आम और जंबू जामुन बहुत समझदार थे। उन्होंने बबूल कटिला को समझाकर शांत किया और शाम को सब पेड़ों की बैठक बुलाने की बात कही।

शाम को अंबू आम के घर के पास जंगल के सारे पेड़ों की बैठक शुरू हुई।
पीपलू दादा ने बोलना शुरू किया—
“यह सच है कि हम पेड़ों की वजह से ही मानव खुशहाल और जीवित है।
मानव तो बहुत समझदार प्राणी होते हैं, पर ऐसा वह क्यों करता है, यह समझ से बाहर है…?”

बबूल कटिला तपाक से बोल उठा—
“मैं तो कहता हूँ, आर या पार की लड़ाई लड़ी जाए। मैं अच्छी तरह जानता हूँ इन मानवों को। ये लातों के दुश्मन, बातों से नहीं मान सकते!”

सभी पेड़ों ने भी बबूल कटिला की बातों पर सहमति जताई।
सभी पेड़ों का मानना था कि अब बिना लड़े कोई बात बनने वाली नहीं है।

अंबू आम और जंबू जामुन को भी बबूल कटिला की बात बहुत हद तक सही लगी।
अंबू आम ने कहा—“जब सभी को यह विचार पसंद है, तो हम भी लड़ने के लिए तैयार हैं।”

बरगद मियाँ ने कहा—“अगर लड़नी ही है तो हम एक अनोखी लड़ाई लड़ेंगे, जो इन मानवों ने कभी लड़ी थी।
हम जंगल के सभी पेड़ जंगल सत्याग्रह की लड़ाई लड़ेंगे।”

“जंगल सत्याग्रह! जंगल सत्याग्रह!”—सभी अचरज में पड़ गए।

अंबू आम ने पूछा—“यह क्या होता है दादा जी?”

पीपलू दादा ने कहा—
“तो सुनो… सत्याग्रह बिना हिंसा किए विरोध करना है।
हम उपवास करेंगे। बिना खाए-पिए हम अपने आप को कष्ट देकर उन मानवों का विरोध करेंगे।
जब हम खाना-पीना छोड़ देंगे, तो हमारी पत्तियाँ मुरझा जाएँगी, फूल और फल बनना बंद हो जाएँगे, शाक-सब्ज़ियाँ सूख जाएँगी।
फल यह होगा कि मानव वायु और भोजन के लिए तरस जाएगा… तब उन्हें हमारी कीमत समझ आएगी।”

जंबू ने कहा—“ऐसे तो हम मर जाएँगे, दादा जी।”

तब दादा जी ने कहा—
“हमें केवल जीवित रहने के लिए ही भोजन करना है।
हमें ध्यान रखना होगा कि पत्तियाँ, फूल और फल सत्याग्रह तक हममें कभी न आने पाएँ।”

जंगल के सभी पेड़ों को यह बात समझ आई और सबने सत्याग्रह करने का फैसला ले लिया…

हेमंत कुमार 'अगम'
भाटापारा छत्तीसगढ़